ग़ज़ल
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वही हादसा फिर हुआ है
दबी आग से घर जला है//१
फ़ज़ा में ज़हर सब घुले हैं
छुरा हाथ में फिर नया है//२
है मुस्तैद तर्दीद झूठी
जहाँगीर भी हर लुटा है//३
कहे ख़ाक़ ज़र्रा गुमानी
जला बाग़ दौलत-सरा है//४
मज़ा जाम का पी गया ग़म
छिना मयकशी का नशा है//५
नदारद है मुंसिफ यहाँ पे
रहा जोर ज़र सद्र का है//६
बना आश्ना मुख़्तलिफ़-सा
लुटा इश्क़ में दिल फ़ना है//७
बशर में हरामी बहुत हैं
कपट ये दिलों की सज़ा है//८
पता कुछ नहीं है किसी का
ज़हर है दुआ या दवा है//९
जली है वफ़ाई अभी अब
क़दम बे-वफ़ाई उठा है//१०
सज़ा वास्ता है किसी से
रिहाई 'जिगर' चाहता है//११
✍️ गोपाल 'जिगर'
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I am spiritual. Because passion for huma... read more
आज शिक्षा और शिक्षक
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शिक्षक है गुरु आज का, ढूण्ढ़े बच्चे रोज।
लाद योजनायें राज की, करता अपनी खोज।।१।।
अफसर पदवी बैठकर, देते गुरु को ज्ञान।
भङ्ग करे सम्मान को, बुनते बुरा विधान।।२।।
बिगड़ी शिक्षा आज की, बच्चे हैं बेहाल।
लाद योजनायें चले, हैं शिक्षक बेताल।।३।।
छोड़ पाठशाला चली, शिक्षा अब बाजार।
तन्त्र बिगाड़े ज्ञान को, विकसित कर व्यापार।।४।।
शिक्षक को बाबू बना, अफसर हाँके डींग।
डाटा भरते रोज सब, सड़ती शिक्षा हींग।।५।।
गुरु को मानें बोझ सब, राज बिगाड़े ज्ञान।
निजी पाठशाला हुई, शिक्षा का प्रिय स्थान।।६।।
नवाचार नित थोपते, नेता अफसर साथ।
बिगड़ पाठशाला गई, चाहे गुरु सौ हाथ।।७।।
निर्धन बच्चे पथ तके, तकते खाली कक्ष।
शिक्षक आयेंगे गुणी, हमें बनाने दक्ष।।८।।
नवाचार नित व्यर्थ के, करते ज्ञान खराब।
ऐसे में गुरु क्या करे, देता फिरे जवाब।।९।।
शिक्षक करते काज सब, छोड़ पढ़ाई काज।
भरे सूचना राज की, लगी पढ़ाई खाज।।१०।।
बिकने अब शिक्षा लगी, हाथ निजी बाजार।
फोड़े गुरु पर ठीकरा, मौन खड़ी सरकार।।११।।
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✍️ गोपाल 'जिगर'-
मेरे कारण
~~~~~~~~~
कल मन के
किसी एक कौने में
कोई टीस न रहे
इसलिये हाज़िर हूँ
सामने तुम्हारे
भुलाकर मनाज़िर
जो तुम्हारे कारण
'कारण बन हो गये थे'
टीस के,
लेकिन तुम्हें
कोई टीस न रहे
मेरे कारण
और मैं न कारण बनूँ
किसी टीस का
इसलिये हाज़िर हूँ।-
जीवन
~~~~~~
कल
फिर आज
और फिर कल
एक दौड़
है...
जीवन
भी है
दो पैर की
एक दौड़
अनिश्चित...
चाबी
श्वाँस की
भरने वाला है
कोई और
अनजान...
जीवन
चलता है
पर जोर से
जैसे हो
घड़ी...
गन्तव्य
और मञ्जिल
कब और कहाँ
मिल जाये
मरकर।
✍️ गोपाल 'जिगर'
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कहीं रेखायें न रह जाये
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'कल का साहित्य'
आज का मार्ग है,
'आज का साहित्य'
कल का मार्ग होगा,
'कल का साहित्य'
आज और कल का
आइना होगा,
लेकिन
किरदार कल का
'आप से निर्धारित होगा'
इसलिये सोच-समझकर
कलम चलाना,
कहीं रेखायें न रह जाये
किरदार लिखने के लिये,
केवल रेखायें तो
साहित्य नहीं होगी,
फिर किरदार कहाँ से होगा।
✍️ गोपाल 'जिगर'
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बग़ावत हो जाऊँ
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मुँह-जोर सदाक़त हो जाऊँ
इक और बग़ावत हो जाऊँ
ये ज़ुल्म है जानी-दुश्मन-सा
बेबस की हिफ़ाज़त हो जाऊँ
मा'सूम की लिख दूँ मैं अर्ज़ी
क़ैदी की ज़मानत हो जाऊँ
छीना है जिन्होंने सुकुँ, उनका
दुख, दर्द, मसाफ़त हो जाऊँ
क्यूँ चैन मिले ज़ुल्मी को अब
उसकी मैं क़यामत हो जाऊँ
कानून बनूँ साथ कलम के
हक़, हर्फ़, नफ़ासत हो जाऊँ
चित्कार है चारों कोनों में
क़ासिर की अदालत हो जाऊँ
***
✍️ गोपाल 'जिगर'
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नज़्म हूँ मैं
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नज़्म हूँ मैं
चाहो जैसे कहलो
उन्वान के सङ्ग...
चाहो तो पाबन्द बनाके कहलो
पर इसके लिये पगडण्डी चुननी पड़ेगी
क़ाफ़िये की मिठास भी लेनी पड़ेगी
रदीफ़ के दामन में पूरी बात कहनी पड़ेगी,
मिसरे से मिसरा बाँधके
उन्वान को साबित करना पड़ेगा
शेर-दर-शेर...
आज़ाद कहोगे तो
अलग-अलग खुशबू उड़ाऊँगी
कभी क़ाफ़िये के सङ्ग
रदीफ़ गुनगुनाऊँगी तो
कभी ऐसे ही झिलमिलाऊँगी,
कभी छोड़के रदीफ़ चढ़ जाऊँगी
ऐसे ही ज़ुबानों पे
पगडण्डी की छाप छोड़ते हुये...
अगर कभी मनमर्जी से
कहना चाहोगे अपने ख़्याल तो
तो नस्री हो जाऊँगी,
न फिर परवाह करूँगी
पाबन्दी की,
किसी भी बन्धन से
न बाँधने दूँगी ख़ुद को
और नस्र-से ख़्याल को
बादबान लगा दूँगी
नस्री नज़्म का
तुम्हारे अन्दाज़ में।
✍️ गोपाल 'जिगर'-
स्त्रियाँ
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समय आ गया है
'बाँझ' का पुल्लिंग शब्द बनाने का
वैसे ही बना लीजिये जैसे
स्त्रियों के लिये 'बाँझ' बनाया गया है,
जिसमें स्त्रियाँ आगे रही थी
तो फिर पुल्लिंग बनाने में
क्यों पीछे रहे?
इसके लिये
कोई पुरुष आगे नहीं आयेगा,
क्या शब्दकोश बाँझ के
पुल्लिंग शब्द की बाट जोहता रहेगा?
महान हैं स्त्रियाँ
जो पुरुष को जन्म दे सकती हैं
लेकिन बाँझ का पुल्लिंग नहीं बना सकती।-
राक्षस
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राक्षसों के मुख और गुण
यहाँ-वहाँ हर जगह मिलते हैं
इसमें उसमें, हर किसी में मिलते हैं।
देखने के लिये उन्हें
चले आइए
रात के अन्धेरे में,
रेल की बोगी में
अपने ही किसी में,
दहेज के लिये जलाई गई बहू के
सास-ससुर व पति के चेहरे में,
सुबह के धुँधलके में
सफेदपोश की कमर के नीचे
पत्नी की बेवफ़ाई में
प्लास्टिक के ड्रम में
मैले मन में, सूने रस्ते में
घरों की लड़ाई में,
माँ-बाप के क़ातिल में
कोख उजाड़ती सास में
फिमेल फिटीसाइड में
दलित को मारते
दम्भी स्वर्ण नरभक्षी में,
हर जगह व्याप्त हैं
राक्षस और इनकी रूहें।
***
गोपाल 'जिगर'
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है दिल में तुम्हारे अभी प्यार-सा कुछ
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छुपाई गई थी दुआएँ बचाके
वो पाई थी हमने
तुम्हीं से यहाँ पे
मिली जब तो जाना था हमने
बचा था हमारे लिए कुछ
उसी की नमी ने कहा था
है दिल में तुम्हारे अभी प्यार-सा कुछ
हमारे लिए ही....,
तड़प को तुम्हारी
बताया दुआओं ने हमसे
उदासी का चेहरा
समझ में हमें अब था आया
है दिल में तुम्हारे अभी प्यार-सा कुछ
हमारे लिए ही....,
महकने लगी जब फ़ज़ाएँ हमारी गली की
तुम्हारी महकती दुआओं से कुछ-कुछ
हमें था लगा यों
है दिल में तुम्हारे अभी प्यार-सा कुछ
हमारे लिए ही....,
हवाएँ महकती हुई चल रही हैं
खिले रङ्ग फूलों पे
बताए तुम्हारी ख़ुशी को
हुई शौक़िया क्यों तुम्हारी
अचानक से रंगी
दुआएँ तुम्हारी जो हमको मिली हैं
बताएँ
है दिल में तुम्हारे अभी प्यार-सा कुछ
हमारे लिए ही....
***
✍️ गोपाल 'जिगर'-