ताहिर हुसैन (युवा-कवि)  
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Joined 19 December 2018


Joined 19 December 2018

जब भी कोई हवा का झोंका आता है,

मेरी रूह को तेरा पैग़ाम मिल जाता है,

तेरा ख़्याल फिर दिल से जाता नहीं,

सिलसिला मेरी साँसों का थम सा जाता है...

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कौन कहता है मैं अकेला हूँ,
मेरे पास है ताउम्र साथ देने वाली 'क़लम',
'क़लम' से निकले हुए बेहतरीन अल्फ़ाज़,
उन अल्फ़ाज़ों में छिपे अनगिनत जज़्बात....

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मैं दरख़्त था वो एक परिंदा निकला,
लगा जब दरख़्त सूखने,
वो कहीं और आशिया ढूँढने निकला...

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यादों का सिलसिला थम सा गया है,

मेरी क़लम का लिखना भी रुक सा गया है...

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खुद को जब तन्हा महसूस करते हैं,

"क़लम" से थोड़ी गुफ़्तगू कर लेते हैं...✍️

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एक पल जो तसव्वुर किया तुम्हारे बिन

जीने का,
साँसें थम सी गई...

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शिकायत ये है कि मैं अब शायरी नहीं लिखता,
हक़ीक़त ये है उनकी आँखों के अलावा मुझे कुछ नहीं दिखता,

कुछ इस तरह डूब जाता हूँ उनकी आँखों में,
जिनसे बाहर निकलने को दिल गवाही नहीं देता...

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जब भी लिखने को मैंने क़लम उठाई,
कागज़ पर उसकी आँखें ही नज़र आई,

रब सलामत रखे उन आँखों को,
जिनकी वज़ह से जिंदगी में बहार आई!!

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देखकर उनकी आँखों को ये ख़्याल आया,
रब ने जरूर बड़ी फ़ुरसत से इन्हें बनाया,
देर तक देखता रहा उन आँखों को मैं,
उन आँखों में हर बार मुझे,
मेरा ही अक्स नज़र आया...

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जाने-अनजाने में दिल से ये ख़ता हो गई,

उसे शिद्दत से चाहना भी एक सज़ा हो गई...

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