ये जो तुझे देखते ही खामोश हो जाती हूं,
याद आया तेरे संग गुज़रा कोई पल तो नहीं?
खो जाता है मुझसे ही मुझ सा कुछ,
कही ये कोई गम-ए-मुसलसल तो नहीं?
छोड़ देती हूं खुद को इन्हीं रास्तों पर,
बताओ न कहीं ये कोई मक़्तल तो नहीं?
भूल जाती हूं अपना ही घर कभी-कभी,
सोच रही हूं बस्ती के नाम पे ये कोई जंगल तो नहीं?
मिल जाऊ जो कभी खुद से तो आ जाता है यकीन,
तुम बस एक बहम हो दिल का हुआ कोई कत्ल़ तो नहीं???
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