"घर"
अपने सपनों के लिए आये थे कभी इस शहर,
की यह शहर, यह ऊंची इमारत के मकान मुझे अपनाते नहीं हैं,
जो छोड़ आये थे वह गाँव, वह गली,वह घर,
ना जाने वह मुझे क्यूँ भुलाते नहीं हैं,
कि मानों बीते दिनों की खुशबू से दरो-दीवारों महकती हो जैसे,
कि वह बस एक घर नहीं, यादों का पिटारा हो जैसे,
दादी के लिए मेरे दादा की आखरी निशानी हो जैसे,
बाबा का बचपन, माँ की पहली रसोई और हम सबकी पूरी ज़िंदगानी हो जैसे,
वह मिट्टी के बर्तनों में चूल्हे का खाना,
वह खुले आसमाँ के नीचे खटिया पर बिस्तर लगाना,
हाँ! यह बस ईंट और मिट्टी की दीवारें नहीं, नीव है मेरे परिवार की,
कि उलझ गईं हूँ जद्दोजहद में, सोचती हूँ कि मुनासिब होगा अब वापस लौट जाना..!!
-