जब हम धार्मिक होंगे तब हमारे जीवन में
हठधर्मिता होगी जो हमारे पतन के सभी
दरवाजे खोल देगा और जब हम
आध्यात्मिक होंगे तो हमारी प्रत्येक
क्रिया धर्म होगी । इससे विनम्रता,
आत्मकल्याण, समाज कल्याण
अर्थात लोक-परलोक दोनो ही
कल्याणमय होंगे । ओ३म् !-
प्रकृति से प्यार हो जहाँ
प्राणियों में सद्भाव जहाँ
भानवता का निखार जहाँ
खूबसूरती का हुजूम वहाँ ।
ओ३म् !-
जरूरतमंदों की सेवा करके मानसिक पशुता का त्याग भी करो । ओ३म् !
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घृणा लज्जा भयं शंका जुगुप्सा चेति पञ्चमी ।
कुलं शीलं तथा जातिरष्टौ पाशाः प्रकीर्तिता ॥
पाशबद्धौ भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः॥
यहाँ के बद्ध जीव और मोक्ष का लक्षण किया गया है—
घृणा, लज्जा, भय, शंका, जुगुप्सा (चुगली), कुलाभिमान, शील, जाति इन अष्ट पाशों से बद्ध होने के कारण ही जिस चैतन्य की जीव संज्ञा वही होती है वही पाशमुक्त होते ही सदाशिव अर्थात जीवग्रंथि से मुक्त होकर मोक्ष स्वरूप चैतन्य परम भाव को प्राप्त होता है । ओ३म् !-
संप्रदाय मनुष्यों को नियमित करने के लिए अत्यावश्यक है, किन्तु आध्यात्मिक क्षेत्र में बाधक भी उतना ही है । अतः आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए सांप्रदायिक हठधर्मिता का त्याग भी अत्यावश्यक है । ओ३म् !
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वेद का अर्थ होता है ज्ञान— वह स्थूल सूक्ष्म और कारण इन तीन रूपों में विभक्त संपूर्ण तामस, राजस और सात्विक गुणों का क्रमशः जहाँ ज्ञान प्राप्त होता है वही वेद अर्थात ज्ञान है, और उन त्रिगुणात्मक ज्ञान का जहाँ भी अन्त अर्थात पर्यवसान होता है वह वेदान्त ज्ञान या वेदान्त तत्त्व कहलाता है, और वह है स्वरूप ज्ञान । ओ३म् !
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मेरी चाय का सूत्र—
सोंठ चूर्ण, कालीमिर्च, लौंग, लेड़ीपिपली, दालचीनी, अर्जुन की छाल, कभी कभी गुर्च भी और अन्त में नीबू का रस । बन गई चाय । ओ३म् !-
श्रीमद्भागवत में सद्वस्तु का स्वरूप जीव ब्रह्म की एकता ही है । ओ३म् !
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