कुछ अजीब सा खोया खोया सा लगता है।
शायद, सीने के आस पास ही कहीं।
मानो दिल के भीतर का कुछ,
शायद, जिसे समाज ने मन कह कर पुकारा।
उसी मन में कुछ,
शायद, वो जो मेरा तुमसे और तुम्हारा मुझसे जुड़े रहने का एकमात्र साधन सा था।
साधन विश्रंभ जैसा कुछ,
शायद, वो जो अनुमोदन बन मेरे और तुम्हारे चेहरे के भाव बताता था।
भाव वही जो मन की गहराइयों में डूब गए है,
शायद, उतनी ही गहराई में जहां तक मनुष्य की कल्पना उसे ले जा सकती हो।
कल्पना वही 'मुसाफ़िर' जो वास्तिविकता नहीं,
शायद, उतनी ही काल्पनिक जितनी कल्पना हो सकती हो।
- सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
बनारस प्रेम है_कानपुर अभिमान_और इलाहाबाद याद।
कलाकार कलमकार।
वह कव... read more
अगर मृत्यु एक अटल सत्य है,
तो एक सत्य, मेरा तुमसे प्रेम करना भी है।
अगर मृत्यु एक अटल सत्य है,
तो मैं आदमज़ाद की तरह उसकी कल्पना कर सकता हूं,
उसका आंकलन भी कर सकता हूं।
पर तुम्हारे मेरे साथ ना होने की कल्पना नहीं कर सकता।
चिंता में बदल चुका ये विचार के,
"एक रोज़ हममें से कोई एक अकेला रह जाएगा।"
मुझे इस बार स्वार्थी बना बैठा है।
अगर मृत्यु एक अटल सत्य है,
तो मैं चाहता हूं मेरे हिस्से ये तुमसे पहले आए।
तुमसे विरह का विचार और दुःखमई शेष जीवन, आज रात मुझे सोने ना देगा।
अगर मृत्यु एक अटल सत्य है, तो जीवन भी तो उतना ही यथार्थ है,
और दुःखों का होना जीवन के होने का प्रमाण है।
क्योंकि अगर किसी रोज दुःख खतम हो जायेंगे ये जीवन शून्य हो उठेगा।
अगर मृत्यु एक अटल सत्य है, तो दुःखों के बीच जीवन के अस्तित्व का होना भी है।
और उतना ही सत्य 'मुसाफ़िर' का तुमसे प्रेम करना भी है।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
ऐ! सुनो, बोहोत थक गया हूँ।
अपने काजल से,
थोड़ी रात बना दो ।
मुझे देर तक सोना है।
ऐ! सुनो, अकेला हूँ, एकान्त है।
गोद में लेटा लो,
वहीं पड़ जाऊंगा।
मुझे देर तक सोना है।
ऐ! सुनो, ये फर्श कुछ ठंडी सी है।
अपने वात्सल्य से,
थोड़ा सौहार्द भर दो।
मुझे देर तक सोना है।
ऐ! सुनो, जब लगे तुमको,
भोर कर देनी चाहिए।
अपनी आंखों से उँजाला, खिलखिलाहट से कलरव,
मुस्कुराहट से ऊषा, बना देना तुम।
पर तब तक, 'मुसाफ़िर' को देर तक सोना है।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
मैंने इतिहास में पढ़ा था,
किसी भी सभ्यता का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है।
अब यह सोचते हुए ख्याल आता है कि दो लोगों का मिलना,
संसार की कितनी बड़ी घटना है।
क्या कहा, कैसे?
अच्छा, कभी गौर से देखना,
एक-दूसरे को बाँहों में भरे दो प्रेमियों को
उनके बीच बहती रहती है एक नदी!
जिसके किनारो पर सपनो, वास्तविकताओं, भावनाओं और संभावनाओ की सभ्यता बसाते दिखेंगे वो दो तुमको,
इसलिए भी, दो प्रेमियों का मिलना जरुरी है।
क्या कहा, क्यों?
क्योंकि प्रेम की सभ्यता का शायद इस धरा पर बना रहना जरूरी है।
प्रेम वो सभ्यता या उस बहती नदी का वो किनारा 'मुसाफ़िर',
जहाँ, हम मिलें और मैं मेरा 'मैं' खो दूँ, शायद हम हो जाने को।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
कुछ इस तरह बस जाओ मुझमें,
जैसे काशी की गलियों में
'महादेव' की भक्ति।
-सुयश मालवीय-
मेरे अंदर के भावनात्मक कलाकार का सूर्य मानो अस्त होने को था।
शाम जहाँ तक नंगे पांव जा सकी,
बस उसने वहीं तक अंतिम सांसे लीं।
अंधेरा हुआ या उसने आंखे मूंद लीं ये पुख्ता नहीं कर सकता मैं।
भावनात्मक कलाकार नहीं रहा,
बोझ, जिम्मेदारी, दुर्व्यवहार, खोखले सपने और तेज़ भागते समय ने दम घोंट दिया।
मैं रोया, बोहोत रोया आंसू बहे,
वैसे ही जैसे सूखी मिट्टी पर बारिश से कीचड़ बनता है,
ठीक वैसा ही महसूस किया मन नें।
कीचड़ तो था ही, इस दुख से करुणा रूपी कमल का बीज भी बना।
ऐसी कौन सी रात है जिसकी सुबह ना हुई हो।
सूर्य ऊगा करुणा रूपी कमल खिला,
फिर अपना ही दम घोट लेने को,
फिर से उन्ही समस्याओं में उलझने को,
फिर से एकबार मर कर जीने को,
या अपने व्यवहार में परिवर्तन लाने को,
भावनात्मक कलाकार 'मुसाफ़िर' में फ़िरसे खड़ा हो उठा।
शायद, सामाजिक जीवन चक्र यही हो ?
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
मेरा स्कूल का पुराना स्वेटर।
आज अनायास ही उसकी स्मृति आई।
मेरा स्कूल का पुराना स्वेटर,
जो कोहनियों से उधड़ सा गया था,
वैसे ही जैसे उस उम्र के शौक, सपने और आशाएं उधड़ा करती थी।
हाँ, पर मेरा स्कूल का पुराना स्वेटर, गर्माहट बड़ी देता था,
गर्माहट वैसी ही जैसी आंखों में भारी उम्मीद में थी।
और मन में भारी आकांक्षाओं में।
अपने स्कूल के पुराने स्वेटर को
बदल ना सकने की मायूसी रही,
और बोझ ना बनने का गौरव भी।
हर वर्ष उसे नया ना कर सकने का संताप भी रहा,
और संतोष भी, चलो एक मौसम और सही।
जैसे जैसे समय बीतता गया वो स्वेटर तंग सा होता गया,
आस्तीनें ऊंची होती रही पर वो स्वेटर फ़िर भी रहा।
रहा मानो सिर्फ़ ये बताने को के 'मुसाफ़िर',
स्तिथि, परिस्तिथि, दशा चाहे जैसी हो,
वो गर्माहट ही है जो तुम्हे मुझसे जोड़े है।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
मेरा 10×10 का कमरा,
सूर्यौदय की नित्य साक्षी बनती कमरे की खिड़की, खिड़की से लगी मेरी मेज़।
वो मेज़ जिसने ना जाने क्या क्या देखा, महसूस किया, और संभाला है।
हम कई बार निर्जीव वस्तुओ के महत्व को तरजीह नहीं देते है।
वो भी किसी मनुष्य की भांति अगर दूर चली जयें तो कल्पना मुश्किल होगी।
बात फिलहाल मेज़ की,
मेज़ ने मुझे संघर्ष करते, रोते, बिखरते, संभालते, सफल होते देखा है।
घर का मेरा पसंदीदा कोना मेज़ जहां किताबें बिखरी पड़ी रहती है मेरी।
मेज़ के पहले दराज़ में पड़ी मेरी डायरी और नीली इंक से भरा फाउंटेन पेन।
इन तीनो ने ना जाने कितनी रचनाओं को तामीर होते, जुड़ते और मुकर्रर होते देखा है।
अनगिनत चाय के प्याले साझा किए है मैन इसके साथ।
कप की अनमिटी छाप प्रमाण है इसका।
कलमकार की रचना सिर्फ़,
कागज़ कलाम से नहीं होती,
मेज़ भी योगदान भरपूर देती है।
मेरा 10×10 के कमरे का पसंदीदा कोना।
मेरी मेज़।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-
यार सुनो पुराना मिज़ाज़ नहीं मिल रहा,
यही कमरे के किसी कोने छोड़ के गया था मैं।
देखना शायद मेज़ पर बिखरी किताबों के बीच पड़ा होगा,
या मेरी खुली डायरी पे
अधूरी बिखरी स्याही में उलझा फसा हो कहीं।
वो जूठे खाली चाय के प्याले के साथ
मोरी* पे तो नहीं पड़ा कहीं,
पिछली बार जब शब्दों के जाल लिए,
चाय में डूब था तो साथ था मेरे।
कहीं वो हवाएं साथ ना ले गई हों उसे,
जिन्हें अपने चेहरे पर महसूस करना पुराने मिज़ाज़ के कारण ही भाया था।
शायद पुराने दिन, बिछड़े लोग, छूटे अवसरों और निराशा ने मसरूफ़ियत का मुखौटा पहन कैद कर लिया हो उसे।
अलबत्ता उलझनों, परेशानियो में सुध ही ना ली मैन उसकी।
अब लगता है जब वो था तो मैं क्या ही था,
अब मिल नहीं रहा तो क्या ही हूँ।
कहेते है तुम तो 'मुसाफ़िर' हो, कहीं कोई चीज़ टिकती है क्या?
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'
*मोरी-जूठे बरतन रखने का स्थान-
मैंने सुना तुम अब किसी और से प्यार करती हो।
अजीब सा सुकून मिला सुनकर।
अच्छा लगा मुझे तुमने ख़ुद को महत्व दिया।
तुमने कृत्रिम भावनाओं का जाल तोड़ा।
सांस ली किसी योग्य पात्र के साथ ली।
मैंने सुना तुमने आवाज़ उठाई, घर वालों के, समाज के ख़िलाफ़ उठाई।
अजीब सा सुकून मिला सुनकर।
अच्छा लगा मुझे तुमने वक़त समझी अपनी।
इंसान समझा खुद को, जीवित समझा खुद को।
आख़िर मूकता की भी तो सीमा मिलनी है।
मैंने सुना तुमने घर छोड़ बाहर जा ख़ुद बनने का फ़ैसला किया,
अजीब सा सुकून मिला सुनकर।
अच्छा लगा मुझे तुमने बंधना पसंद नहीं किया।
चिड़िया ऐसे भी पिंजरे में अच्छी नहीं लगती।
चहकती, खिलखिलाती, खुश ही अच्छी लगती है।
मैंने सुना उसने अपनी पहचान खोजने, बनाने की सोची।
अजीब सा सुकून मिला सुनकर।
अच्छा लगा 'मुसाफ़िर' उसने चूल्हा छोड़, क़लम थामी,
आज़ादी छीनी, मेहनत अपनाई, तन बचाया, भूख दबाई।
ग़ुलामी छोड़ी, कुरीतियां तोड़ी, रौशनी अपनाई, आवाज़ उठाई।
अच्छा लगा मुझे ।
-सुयश मालवीय 'मुसाफ़िर'-