मेरी मेज़ पे पड़े कागज़ ने पूछ ही लिया कलम से
क्या ख़ता हुई हुज़ूर, क्या गुनाह हुआ है हम से ?
देखो खुदा ने खुद किया, हर ज़र्रे को मौज में मस्त मलंग
क्यू फिर बिखेरते तुम हर दफा मुझ पे सिर्फ दर्द का रंग ?
भोली कलम का क्या ही दोष, कलम तो बस मेरी ग़ुलाम है
सिर्फ गम की स्याही रखने वाला, ये सायर तो बदनाम है
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