*”आहार-शुद्धि”* नामक पुस्तक के *”आहार-शुद्धि”* नामक लेख से –
(परमश्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज)
प्रश्न‒ आयुर्वेद और धर्मशास्त्रमें विरोध क्यों है ? जैसे, आयुर्वेद अरिष्ट, आसव, मदिरा, मांस आदिका विधान करता है और धर्मशास्त्र इनका निषेध करता है; ऐसा क्यों ?
उत्तर‒
*गतांक से आगे*-
आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है । अतः किसी भी तरहसे शरीर स्वस्थ, नीरोग रहे ‒ इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांस, मदिरा, आसव आदिके सेवनका विधान आता है ।
धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता रहती है; अतः उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध आदि यज्ञोंमें पशुबलिका, हिंसाका वर्णन आता है । वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता । *हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो लगता ही है*।* इसके सिवाय मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता है । फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्त्रीय विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है ।
*शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दुःखी होता है, उसपर भी आफत आती है । उसके मनमें भी ईर्ष्या, भय, अशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि । यह वैदिकी हिंसाके पापका ही फल है ।
-