बड़ी देर से समझा है जहां,
इस बात में अब शक नहीं....
सपने देखने का होता है यहां,
हर किसी को हक नहीं...-
माँ ही तो होती है
जो बिन कहे सब जान लेती है
बेटी का दुख हो या सुख
वो इक नज़र में पहचान लेती है-
अलविदा की बाक़ी..
इक ईंट से बनता हो गर
कहीं किसी का घर,
लगा दो वो भी फिर..
किसी को तो छत मिले कहीं इससे,
कभी खुद ही भीग जाया कर..
अलविदा शायरी..
ज़िंदगी की डायरी..
मुकम्मल हुआ इक सफ़र..
धुल जाएंगे शब्दों के दाग भी..
बह जाएगी स्याही भी..
कब.. कहां.. क्या ख़बर..-
जिसे कहती नहीं अपना
ये दुनिया वो दिल पत्थरों से तोलती है
अजनबी कर के अजनबी इक मोड़ का
ये रास्ता भी तो कभी खोलती है
उम्मीद दे कर के फिर होता है कुछ सितम ऐसा
क्यूं रखी थी उम्मीद, उम्मीद तोड़कर ये बोलती है
दिल पूछता है फिर इक सवाल चोट खाने पर
के ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है...-
अंतिम ऊंचाई
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।
~ कुंवर नारायण-
अंतिम ऊंचाई
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे—
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है—
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं—
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में।
~ कुंवर नारायण-
खता उनकी भी नहीं यारो वो भी क्या करते,
बहुत चाहने वाले थे किस किस से वफ़ा करते।
~ गुलज़ार-
उड़ना है जो आसमानों में..
जान चाहिए तो फिर उड़ानों में..
सहारों को मिलती फुरसत है कहां..
कहां ठहरेंगे वो भला तूफ़ानों में..
भरोसा रखना सिर्फ पंखों पे अपने..
अपना कैसे मिलेगा कहीं अनजानों में..
नादान फ़ख्त इक "प्रीत" परिंदा हूं मैं..
न मालूम आया था क्यूं यहां इंसानों में..-
शायर बनना बहुत आसान हैं…!
बस एक अधूरी मोहब्बत की मुकम्मल डिग्री चाहिए…!!
~ गुलज़ार
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