अफसोस की प्रतिलिपियां फिर जंगल के वर्चस्व को खा गई ।
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वरना तुम्हारा अंदर बाहर आने से पहले तुमको निगल जाएगा ।
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प्रिय म़रहम़ !
मेरी जान! मेरी ज़िंदगी!
डर लगता है मुझे
ख़ुद से नहीं तुमसे, तुम्हारे दु:ख से ….
तुम्हारा सामना करने से डर लगता है तुम से बात करने से डर लगता है मैं इतना कहीं नहीं टूटा आज तक के जीवन में मगर जब तुम को देखता हूँ तस्वीरों में भी तुम्हारी आँखों को देखता हूँ ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी आँखों के नीचे जो मोटी मोटी परतें बन गई है वहीं छुप गया हूँ मैं बहूत तक़लीफ़ दे रहा हूँ । तुम्हारी आँखों के नीचे हूँ मैं कितना चुभ रहा हूँ मगर इतना सब कुछ होते हुए भी दिखाई नहीं देता तुम को तुम्हारे जीवन में कितनी विवशता है जिसका जन्म मेरे कारण हुआ ।
तुम्हारी कितनी बड़ी तकलीफों का जोड़ बन गया हूँ मैं जैसे गले से उतरते ही नहीं कोई गाँठ समय निकलता जा रहा है श्री कृष्ण का सारथी बनकर मगर मैं आज भी वहीं खड़ा हूँ मैं किसी भी बाधा को नहीं मानता धर्म ना जात ना गुण ना समाज ऊँच नीच इत्यादि । मेरे लिए सबसे ऊपर तुम हो सर्वोत्तम तुम्हारे साथ ज़िंदगी की चाहत है । मुझे सिर्फ़ कर्म की परिभाषा का पता है जो हमेशा तुम्हारे लिए करता रहूँगा । मेरी दुआओं का रंग पता नहीं कब हरा होगा ईश्वर शायद सो रहा है सोते हुए तो इंसान को भी नहीं उठाना चाहिए मगर मैं ईश्वर को उठाने की सैकड़ों गुस्ताखियां कर चुका हूँ ।— % &आज फिर तेरी तस्वीर ने मुझे झकझोर कर दिया जैसे अचानक से मेरे पतझड़ में ख़ून की बारिश होने लगी काजल की जगह पानी से लबालब आँखें बहुत चिल्लाती है गहरे हरे काले ज़ख्मों की बसंत लेकर खड़ी हो जाती है पुकारती है मुझे मेरी अंदर की आवाज़ें मेरी आत्मा नोचती है ईश्वर की क़मीज़ मगर उसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता है उसके पास सैकड़ों ऐसे वस्त्र है जो हर रोज़ ऐसे बदले जाते हैं जब तक उसकी छाती पर कोई निशान नहीं होता ।
तुम्हारे अंदर की पीड़ाओं की श्रृंखला, भय , घोर निराशा मुझे घंटों तक संसार भूलने पर विवश करती है सैकड़ों थपेड़े मारती है ।
बहती हुई श्री गंगा माइ में बह जाए तुम्हारा दुःख तुम्हारे केशों से टपकते हुए गंगाजल से ..... या फ़िर कोई और विकल्प हो जैसे
काश़ कोई ऐसा दरिया होता जो सोख लेता दुख मात्र डूबने भर से ज़िंदगी के , डूबा रहता मैं तुम्हारे दुखों की मुक्ति के लिए ताउम्र ।— % &-
जीना भूलने के लिए किस हद तक जाना है
सांसें चलती रहनी है पानी को बहते जाना है ।-
सुख और दुख छोटे बड़े !!
अक्सर यही होता है दुख में हम सिर्फ समय को काट रहे होते हैं जिसको हम अपने हाथों से अपनी सांसों से नजरों से काटते हैं उसका काटना इतना सहज होता है कि हम बारीकी से देख सकते हैं मगर जब हम सुख में होते हैं या फिर यह कहीं जब हमारे पास सुख आता है तो हम सुख में इतने खो जाते हैं सुख की अवधि हमें लघुकालिक लगती है । सुख और दुख छोटे बड़े नहीं होते हम हो जाते हैं दुख में इतने बड़े हो जाते हैं जाने सारे जहां का , दुख में हम देखने लगते हैं हजारों लाखों के दुख नदी नालों के दुख पर्वतों के दुख जानवरों के दुख पक्षी पंछी बंद कमरों के दुख भी देखते हैं हम दुख में महसूस करते हैं और सुख में बहुत छोटे इतने छोटे कि हमें अपने सुख के अलावा कुछ दिखता ही नहीं ।-
काबा की गलियों में ढूंढ़ो
बिहड़ों में , जंगलों में ढूंढ़ो
कोई रेत का मैदान बचा नहीं
मेरी आंखों को आंखों में ढूंढो
कोई सज़ा जो बाकि हो गर
ग़ाफ़िल रात में ख्वाबों में ढूंढो
मामूली जुर्म किया नहीं हमने
फिर उसको ना किताबों में ढूंढ़ो
एक सौ तरीके तुझे पाने के
खुद को तुम मेरी आंखों में ढूंढो-
सिर्फ एक दिन की खुशी का बड़ी मुश्किल से बंदोबस्त होता है वह भी इसलिए की बड़े दिनों बाद आज बड़े दिनों बाद मगर बड़े दिनों बाद भी एक दिन से ज्यादा ठहरना दुख का कारण बनने लगता है ।
यह दुनिया यह समाज यह सिस्टम हमें बहुत कुछ सीखता है वही जो पहले हमको हमारे मां-बाप सीखते हैं या फिर सीखने की कोशिश करते हैं हम सीखते नहीं हैं मगर धीरे-धीरे हम सब सीख जाते हैं अपनी महफिल के माध्यम से दोस्तों के माध्यम से रिश्तो के माध्यम से मगर मां-बाप के माध्यम से बहुत कम सीखते हैं हालांकि सबसे पहले वही हमको हमारा सिलेबस करवाते हैं मगर बिना चोट खायें कुछ भी समझ नहीं आता ।
करवटें कम हो जाती है अगर कमर में दर्द है
दोस्ती भी कम हो जाती अगर ठेस में मर्ज है
ये दुनिया है ग़ाफ़िल यहां कुछ भी स्थाई नहीं
लोग दूर भागते है शख्स जिसके पांव में कर्ज़ है ।-
मैं मेरी आँखों का क्या करूँ
हसरतें जो इतनी क्या करूँ
आँख में एक तस्वीर रहती है
बताओ आँख का क्या करूँ ।-
मोहब्बत
जुबान से ना कहीं जाए वो सलाम हो गई है ,
मुझे तेरी सूरत हंसी महसूसियत सब राम हो गई है ।-