"साँझ" 1st   (सुशील यादव "साँझ"..✍️)
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Joined 20 July 2021


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YESTERDAY AT 13:20

यूँ ही नहीं इस ज़ुबां पर पड़ गए ताले थे,
न जाने कितने ही राज़ हमने संभाले थे।

मर मिट गए हैं जो सच की खातिर,
ज़रा सोचो वो कितने हिम्मत वाले थे।

लगनी ही थी अनिंद्रा की बीमारी हमको,
इन आँखों ने सपने भी तो बहुत पाले थे।

मंजिलें खुद ही बता देंगी संघर्ष एक दिन,
सफ़र कैसा था, पाँव में कितने छाले थे।

ले गए जो लूट के दिल का चैन करार,
अफ़सोस, वो इस दिल में रहने वाले थे।

हुआ है कत्ल आज, जिन हाथों से मेरा,
वो दुश्मन नहीं मेरे अपने ही रखवाले थे।

जब - जब भी दिल पे बोझ बढ़ा तब,
आँसू अंतर्मन के धक्के मार निकाले थे।

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25 APR AT 14:33

ये जो अहमियत है न मेरी नजरों में तेरी
वो अपनी नज़रअंदाज़ी से खो दोगे तुम,
जिस दिन हार गई ना, मैं ये सब्र अपना
उस दिन अपनी जीत पर रो दोगे तुम।

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23 APR AT 22:55

ख़ुदा कातिब है यारो हर किसी की कहानी का,
हम सबको तो बस अपना क़िरदार निभाना है।
कातिब - लेखक

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22 APR AT 20:32

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17 APR AT 23:44

जब नज़रें किसी पर अटक जाएं,
ये दिल भी रास्ता भटक जाए।
तब भूलकर भी ना इजहार करना
बस ख़ामोशी से प्यार करना।

हौले-हौले करीब जब वो आने लगे
दिल को जोरों से धड़काने लगे,
तब भूलकर भी ना इकरार करना,
बस ख़ामोशी से तुम प्यार करना।

फिर लगने लगे कि वो बस मेरा है
अब उसके ही साएं में रैन बसेरा है,
तब भूलकर भी ना ऐतबार करना
बस ख़ामोशी से तुम प्यार करना।

फिर छोड़ कर जब वो चला जाए
दर्द-ए-दिल ना उसको भुला पाए,
तब अश्कों को ना ज़ार ज़ार करना
बस ख़ामोशी से तुम प्यार करना।

क्या समझे थे तुम, कि वो तेरा है
अरे पागल ये इश्क बड़ा लुटेरा है,
अब देख लिया उसका वार करना?
कहा था न,ख़ामोशी से प्यार करना।

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15 APR AT 23:25

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7 APR AT 17:49

मस्तमौला सा चला जा रहा था मैं तो, अपनी ही धुन में ऊंघते हुए,
कदम वहीं ठहर गए मेरे,जब देखा एक गुलाब को गुलाब सूंघते हुए।

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3 APR AT 13:04

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1 APR AT 22:00

सुना है कि आजकल वो
आईने से नज़रें चुराने लगे हैं,
दिख न जाऊँ मैं आँखों में उनकी,
खुदको वो हमसे छुपाने लगे हैं।

तड़प उठता था दिल कभी,
मेरे चेहरे की उदासी से जिसका,
लगा के नमक ज़ख्मों पे मेरे
आज वो मुस्कुराने लगे हैं।

मेरी मौजूदगी से आता था
रंग जिसकी महफ़िल में कभी,
मेरी परछाई से भी देखो
आज वो कतराने लगे हैं।

सीख लिया तजुर्बा हमने भी,
लोगों को परखने का अब तो
अपनत्व के नाम पे लोग अब
दुनियादारी निभाने लगे हैं।

दुश्मनों की जरूरत भला अब
रह गई है किसको "साँझ"
जब अपने ही अपनों को
यहां इस कदर सताने लगे हैं।

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29 MAR AT 19:37

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