सुशान्त सुमन  
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Joined 20 June 2018


Joined 20 June 2018

चोट लगी? पता चला? दर्द हुआ?
पता नही!
भूल गए? भूला दिया? ठीक किया?
पता नही!
आप दुरुस्त, हम ग़लत, ये क़िस्सा भी तमाम हुआ,
इस जंग में तो हर कोई बस यूँ ही बदनाम हुआ।
एक रोज़ हिसाब तो सबका होना ही है,
मगर कब होगा?
पता नहीं!
आप जानब-ए-आला हो चुकी
बात खराब हो चुकी,
वैसे तो हूँ तमीज़दार
पर अब.....मेरा पता नही!
रुलाया गया, तोड़ा गया, तोड़कर फिर जोड़ा गया
ख़ामोशी ओढ़ ली हमने
फिर हर हर्फ़ उनका जाया गया
अब, कब किसको क्या बोल दूँ
पता नही!

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बिना धागे के सुई जैसी बन गयी है जिंदगी,
सीती कुछ भी नहीं, बस चुभती जाती है।

जो धागा था उम्मीदों का, वो कहीं उलझ गया,
रिश्तों को जोड़ने का हुनर भी अब हाथ से फिसल गया।
अब हर कोशिश ज़ख्मों को बस गहरा कर जाती है,
सीती कुछ भी नहीं, बस चुभती जाती है।

अपने ही वजूद में हर पल एक नोक सी महसूस होती है,
जोड़ने की हर कोशिश में और दूरियाँ बोती है।
हर मुस्कुराहट के पीछे एक टीस छोड़ जाती है,
सीती कुछ भी नहीं, बस चुभती जाती है।

न कोई लिबास सिला, न कोई पैबंद लगा,
बस एक कोरे कागज़ पर ये चुभन का दाग लगा।
ये अपनी ही मौजूदगी अब सवाल बन जाती है,
सीती कुछ भी नहीं, बस चुभती जाती है।

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जिंदगी को थोड़ा बहुत हमने भी समझा है,
साए की शक्ल में सूरज को जलते देखा है।

जिस माटी को चूमा था मौसम की पहली बूंद ने,
उसी बहार में पतझड़ को पनपते देखा है।

कौन कहता है कि पत्थरों में जज़्बात नहीं होते,
हमने आँसूओं को भी पत्थर पे लुढ़कते देखा है।

बेरंग पानी भी समय पर अपना रंग दिखा देता है,
जिन्दों को डूबते और मुर्दों को तैरते देखा है।

हर रंग यहाँ बेवजह नहीं उभरता,
हमने अंधेरों में भी उम्मीद पलते देखा है।

जो सब्र कर गया, वही दरिया बन गया,
हमने समंदर को भी रेत पर बिखरते देखा है।

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उनका ग़म भी भूल गया हूँ
अपना सब कुछ भूल गया हूँ
आप मंज़िल तक ख़ैर से पहुँचे
मैं तो अपना रस्ता भूल गया हूँ

आपकी खुशी में इतना ग़ुम हूँ
अपना ग़म मैं भूल गया हूँ
आप मुस्कुरा दे कहीं तो सुकून मिले
मैं तो रोना भूल गया हूँ

आप ख्वाहिश में हैं किसी और कि
मैं अपना फ़साना भूल गया हूँ
आप रोशनी बनी हैं
किसी ग़ैर के सफर कि
मैं तो
अपने अंधेरे का उजाला भूल गया हूँ

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किस हक़ से वक़्त माँगू उनसे
न वक़्त अपना रहा न ही वो

जो रिश्ता था कभी अपना लगता था
न रिश्ता अपना रहा न ही वो

मैं ख़्वाबों में बुनता रहा उनको
न ख़्वाब अपना रहा न ही वो

आप बस यादों के सहारे जी रहा हूँ
न याद अपना रहा न ही वो

तन्हाई में यही तसल्ली मिलती है
बस गम अपना रहा न कि वो

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मैं समझदार इतना हूँ कि झूठ पकड़ लेता हूँ,
और बेवकूफ इतना हूँ कि फिर से यकीन कर लेता हूँ।

कई बार पढ़ लिया है उनकी आँखों का सच,
फिर भी हर दफ़ा उनकी बातों को सच मान लेता हूँ।

जो दिल तोड़ता हैं बार-बार वो चेहरा अज़ीज़ हैं,
उन्हीं की यादों में खुद को हर रोज़ उलझा लेता हूँ।

जानता हूँ फ़रेबी रिश्तों की असलियत,
मगर एक मुस्कान पर सब कुछ भूला लेता हूँ।

ख़ुद को संभालने की तसल्ली देता रहता हूँ रोज़,
पर गम-ए-दरिया में खुद को रोज़ डूबा लेता हूँ।

न जाने कैसी है ये मोहब्बत,
ज़ख्म खाकर भी बार-बार उम्मीदें जुटा लेता हूँ।

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मैंने चाँद पे कुछ लिखा है, तुम उसे चुपके से पढ़ लेना
तुम कुछ मत कहना, मैं सब समझ जाऊँगा
तुम शाम को याद करना, मैं रात सपने में जरूर आऊँगा

इन दिनों अपनी ही हरकतों पे हँसी आती है मुझे
बस यही एक बहाना है, जिस पर हँसी आती है मुझे

अब तुम दूर हो या पास, ये मायना नही रखता
मैं देख चुका हूँ ख़ुद को तुम्हारी निगाहों में
अब मैं अपने घर में आईना नही रखता

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मैंने कब कहा मुझे गुलाब दे, या प्यार से नवाज़ दे,
आज दिल बहुत उदास है,
गैर बन के ही सही, पर आवाज़ दे।

न कोई पुराना किस्सा छेड़, न कोई हिसाब दे,
मेरे उलझे सवालों को, न कोई जवाब दे।
बस इस घने सन्नाटे को, एक पल की पनाह दे,
गैर बन के ही सही, पर आवाज़ दे।

माना कि अब रिश्ते में वो पहले सी बात नहीं,
मेरी दुनिया में शायद अब तेरी कोई रात नहीं।
इस टूटते हुए तारे को, बस एक दुआ दे,
गैर बन के ही सही, पर आवाज़ दे।

तेरे लफ़्ज़ों की आहट भी अब एक सुकून है,
ये दिल तेरे लिए आज भी कितना मजबून है।
मेरे इस अकेलेपन को थोड़ा सा सहार दे,
गैर बन के ही सही, पर आवाज़ दे।

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मुझे पढ़िए तो किताबों की तरह से पढ़िए,
आप तो सुबह का अख़बार समझते हैं मुझे।
कहाँ आसानी से आता हूँ समझ मैं सबकी,
जो समझते हैं — कई बार समझते हैं मुझे।

हर पन्ने पर एक ख़ामोश तहरीर छुपी है,
आप बस सुर्ख़ियाँ देखकर उलटते हैं मुझे।
हर मुस्कान की तह में है कोई फ़साना,
जिन्हें फ़ुर्सत हो, वो ही समझते हैं मुझे।

मैं वक़्त की जिल्द में बाँधा गया एक अफ़साना हूँ,
लोग हाथों से नहीं — दिलों से पढ़ते हैं मुझे।
इन आवाज़ों के शोर में मैं खो नहीं जाता,
जो सच में जानना चाहें, वो सुनते हैं मुझे।

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मुझको मालूम हैं अपने सारे गुनाह,
एक तो मोहब्बत कर ली,
दूसरी तुमसे कर ली,
तीसरी बेपनाह कर ली।

चौथी ये कि इनकार के बाद भी इंतज़ार किया,
पाँचवीं ये कि हर दर्द पर “तुम्हारा” इख़्तियार किया।

छठा गुनाह ये कि खुद को भुला बैठा,
सातवां कि तुझमें ही खुदा देखा
एक और गुनाह था जो गिना नहीं हमने,
तेरी हर खता को भी वफ़ा मान बैठा।

अब कोई कहे मुझसे कि तू क्यों टूट गया,
तो किस-किस जुर्म का जवाब लाऊँ मैं...
इश्क़ किया था — पर कैसे किया, यही भूल गया हूँ मैं।

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