वक़्त का जायज़ा ही तो ले रहे हैं जनाब,
शौक़ नही हमें तमन्नाओं में आग लगाने की
क्यों रोकूँ बेक़ाबू दिल को तुम्हारे कोड़ो की फ़रमाइश से
जिसने शिद्दत की थी तुम्हे अपना बनाने की-
रहम कर भीगी आँखों पर, थाम ले ज़लज़ले को
कि फ़क़ीर के घर मोतियों के ढ़ेर दुनियाँ देख न पाए।-
बस ज़ख्म दिए जा रहे वो कारतूस ए इश्क़ के,
मोहल्लत तो दे एक घाव भड़ जाने की,
शिकश्त आरज़ू की हुई है, मोहब्बत की नहीं
इजाज़त है अज़ीज़म, क़हर हम पर ढाहने की।-
कैसे कहे कि मोहब्बत में वो बेवफ़ाई कर बैठी,
वो तो मोम की थी, शायद आग हमनें ही लगाई होगी।-
लगा रहे थे हर मोड़ पर इश्क़ के दाम,
वो व्यापारी ही ग़ालिब सबसे ज़्यादा तनहे थे।-
कुछ मनचले बंदे भी है तेरे ए ग़ालिब,
ख्वाबों की ख़ैरियत पल पल लिया करते हैं
खुद कागज़ की कश्तियाँ बनाते है,
और इल्ज़ाम बरसात को दिया करते हैं।-
थोड़ी बारिश हमारे बाजू भी बरसाना ए ग़ालिब,
तमन्ना है, कुछ चेहरों को धुलते देखने की।-
यू तो ठीक ही किया तुमनें चुप जज़्बात करके,
इन कहानियों के सौदागरों को सब बताना जरूरी न समझा,
पर्दे पर चेहरा और चेहरे पर पर्दा वालों से भी क्या दोस्ती करते
मुद्दों को ही उठा देने वालों पर मुद्दा उठाना जरूरी भी न समझा।-
औरतों को पल्लू - पर्दे में न देख,
टिप्पणियाँ बेशुमार करते हो।
थोड़ी देर चेहरा ढकना पड़ रहा तो,
शिकायतें हज़ार करते हो?-