"अंतिम प्रहार"
घायल शेर का हर-एक प्रहार...
अंतिम प्रहार की तरह घातक होता है|-
"ढाई अक्षर"
प्रेम-प्रेम से, घृणा-घृणा से
दोनों ही बढते है....
कदाचित आप को ज्ञात हो
कि घृणा- प्रेम से
और प्रेम- घृणा से
आपस में घटते है..!|-
"सबको apनी फिक्र है"
वो बस एक कश्ती थी।
जिसके सहारे दरिया को पार करना था,
वह चाहे लटककर करना पडा़ या बैठकर,
पर दरिया तो पार कर लिया..।-
मन ही मन सोचता हूँ,
चुका ना पाऊँगा ॠण तेरा,
अगर जीवन भी मैं दे दूं |
हाथ पकड़कर चलना सिखाया तूनें,
मुश्किलों से लड़ना सिखाया तूनें,
जीवन पथ पर बढ़ना सिखाया तूनें |
मन ही मन सोचता हूँ,
तेरे कईयो एहसान है मुझपे,
तेरी ममता का ऋण है मुझपे,
तेरी सारी खुशियाँ कुर्बान है मुझपे |
मन ही मन सोचता हूँ,
चुका ना पाऊंगा ऋण तेरा,
अगर जीवन भी मैं दे दूं ||
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"मंजिल"
गुमान था उन्हें कि,
उंची थी मंजिलें उनकी ||
गुमान था उन्हें कि,
रास्ते उबड़- खाबड़ थे हमारे,
पर जज्बात हमारे सच्चे थे|
डोरी भी कच्चे धागो की थी,
पर डोरी हमारे पास भी थी|
मंजिलों को फतेह की जो चाहत थी,
ओ चाहत तो हमारी ही थी||
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"बड़े चलो"
बड़े चलो बड़े चलो
संग - संग कदम बढ़ाये चलो,
संघर्ष की राह पर कदम बढ़ाये चलो,
विश्वास की ज्योति प्रज्वलित किये चलो,
बडे़ चलो बड़े चलो
संग - संग कदम बढ़ाये चलो ||
तिमिर में सुरज बनके सवेरा किए चलो,
प्रेम के गीत गुन-गुनाते चलो,
बडे़ चलो बड़े चलो
संग - संग कदम बढ़ाये चलो ||
जीत की आस के दीये प्रज्वलित किये चलो,
हवा के संग खुशियाँ बहाते चलो,
कविता दर कविता लिखते चलो,
बडे़ चलो बड़े चलो
संग - संग कदम बढ़ाये चलो||-
जून की तपती धूप में,
झुलसते खेतों की प्यासी
जमीन पर आवारा बादलों का
पहरा....
बहती हवा का जहाँ डेरा
वहाँ बिछडते बादलों का दुख
गहरा.....✍|-
"शब्द और स्वर"
वक्त का खेल कुछ इस कदर की,
कलम की स्याही जम सी गई||
शब्द इस जाल में इस कदर उलजे की,
काव्य के धागे में पिरोये नहीं जाते||
स्वर भी इस कदर उलजे की,
संगीत की धुन फीकी सी हो गई||
कण्ठ और कलम कुछ ऐसे उलजे की,
स्वर और शब्द को अधूरा छोड़ गये||
वक्त का खेल कुछ इस कदर की,
स्वर और शब्द दोनों छोड़ गये!
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"विरह"
वो खेतों की कजली,
धरती की ह्रदय विरह अग्नि,
बयां करती मानव तेरी करनी ।।
इतना सब कुछ दिया उसनें,
फल, फूल, और रहने को आश्रे,
दिया उसने हवा, पानी और कई उपहार,
बदले में मानव ने भी किया संहार ||
नित्य नये साधनों की खोज में,
पग पग पर बड़ता अपराधों का प्रकोप,
कांप उठी धरती माँ की कोख,
पग पग पर ह्रदय विरह की अग्नि,
बयां करतीं मानव तेरी करनी ।।
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