मोह और प्रेम
में अंतर सिर्फ इतना
बिल्कुल एक महीन सी रेखा
मोह बांध कर रखता है
और बंधा रहना चाहता है
वंचित होने के ख्याल भर से
पीडा से कराह उठता है
लेकिन प्रेम
स्वतंत्र विचरता है
शब्दों तक उसको बयां नहीं पाते
ये बस देना जानता है
न्योछावर होना चाहता है
आसमा की तरह विशाल
और पाताल से भी गहरा
समर्पण ही प्रेम है।
सुरिंदर कौर-
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#विरह_के_रंग
#कांच_से_अल्फाज
#मुख्तिलफ़_तहरीरें
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कितनी अकेली, कितनी तन्हा हूँ,
तेरे बिन सूखा हुआ झरना हूँ।
हर शाम तेरी कमी में खोई,
हर सुबह का भीगा सा सपना हूँ।
तू जो गया, तो सब कुछ रूठा,
अब तो ख़ुद से भी अजनबी सा हूँ।
सूनी रातें सवाल करती हैं,
किसके लिए अब तलक ज़िंदा हूँ?
तेरे लौट आने की चाह लिए,
टूटी उम्मीद का ही हिस्सा हूँ।
कितनी अकेली, कितनी तन्हा हूँ,
इश्क़ में डूबा हुआ कतरा हूँ।
सुरिंदर-
ग़म के मारों का सहारा है चांद अब।
प्रियतम के मुख का नज़ारा है चांद अब।
चर्चा हर घर की छत पर है मुसलसल,
इश्क़ के लोग का मारा है चांद अब।
ख़ूबसूरती चांद की अब नुमाया है,
तेरी छत पर हमने उतारा है चांद अब।
दीवाने दीदार करें चांद में यार का,
टूटे दिलों का सहारा है चांद अब।
वो आए और लौट कर जाने लगे,
गवाह इश्क़ में हमारा है चांद अब।
बिछड़े लम्हों की तासीर बन गया,
यादों का इक इशारा है चांद अब।
सुरिंदर-
कितनी अकेली कितनी तन्हा हूं मैं आज।
हर गीत है रूठा , दब गयी मेरी आवाज़।
औरत होना ही मेरा ,मुझे बेइज्जत करेगा
जन्म दिया जिसे मैंने,लूटी उसने ही लाज
संस्कार मेरे बस रह गये बन कर आराइशें
लूटता रहा मुझे समाज का रीति रिवाज।
मार पीट,गाली गलौज,सब मैं सह गयी
मैंने बाप की पगड़ी की रखनी थी लाज
बन कर काली जब शस्त्र मैंने उठा लिए
नेस्तनाबूद हो महिषासुर ,होगा नया आगाज।
सुरिंदर कौर
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गिरा कोई सड़क पर, भीड़ थी पास में,
सब देख रहे थे — मोबाइल के ग्लास में।
न कोई बढ़ा, न किसी ने पुकारा,
इंसानियत को बस कैमरे ने निहारा।
खून बहा, पर उंगलियाँ चलती रहीं,
कमेंट्स में दया, पर आँखें मचलती रहीं।
गिरती हुई दीवारों को सबने देखा,
पर किसी ने भी ईंट नहीं थामी रेखा।
हर चीख को "क्लिक" में समेटा गया,
इंसान था वो, मगर कंटेंट समझा गया।
सुरिंदर कौर-
तुम्हारे लिए ही तो जी रहे हैं हम।
ज़हर जिंदगी का पी रहे है हम।
हर सांस में सदा तुम्हारी है सुनो
चाक दामन अपना सी रहे हैं हम।
हमारी बातों पर ज़रा गौर फरमाएं
दुख भरी इक कहानी रहे हैं हम।
तला तुम इतने आते रहे पास मेरे
उम्र भर फिर भी तिश्र्नगी रहे हैं हम।
तमन्ना ए हिज़्र की बात कौन समझे
इक रोती हुई शहनाई रहे हैं हम।
सुरिंदर कौर
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हमें सलीका न आया जहां में रहने का।
अपने दिल की बात ,किसी से कहने का।
अंदर ही अंदर से हम हमेशा रहे घुटते
अजनबी लोगों संग बातों में रहे जुटते
समझा न कोई दिल हमारे के मसाइल
कर गये लोग हमें फूलों से भी घायल।
बेवफाई करते हम ,ये न थी तरबीयत
वफ़ादारी ही रही हमारी मिल्कियत।
हमको तो ये जहां हमेशा ठगता रहा
परेशां ये दिल दीवारों संग लगता रहा।
सुरिंदर-
वहीं घर है, वहीं किस्सा हमारा
जहाँ पहली बार हाथ थामा था तुम्हारा,
दीवारों ने सुनी थीं धीमी सी बातें,
रात छत पर रहा चांदनी का नजारा
वहीं घर है जहाँ ख्वाब पले थे,
बचपन में हम कितने मनचले थे
एक चौखट थी, जो हर शाम
तेरी दीद करना था बस काम
वहीं किस्सा है — वो रूठना, मनाना,
बारिशों में भीगना, फिर गर्म चाय का बहाना।
जहाँ हर कोना पहचानता है हमें,
गर्म एहसास हो तो वक्त थमें
अब सब है, पर तुम नहीं हो पास,
वो घर वैसा ही है, पर कुछ उदास।
मगर दिल कहता है बार-बार सारा,
वहीं घर है... वहीं किस्सा हमारा।
सुरिंदर-
तेरा हुस्न जैसे हो शायर की ग़ज़ल।
देख कर तुझे,ये दिल जाए मचल।
ये नशीली आंखें,और लहराती जुल्फ
कैसे न कोई ,इन दोनों में जाए उलझ।
नज़दीक आते आते तेरा वो सिमटना
बदन तेरे की डाली का वो लचकना।
मगरूर हुस्न का अदा से वो चलना
पलकों की चिलमन उठाना गिराना।
तड़प बेकरार दिल की करेगी असर
ए दिल इंतजार कर ,रख थोड़ा सब्र।
सुरिंदर
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सूरज की किरण आई तेरे गाँव तक,
मेरे आँगन में आज भी अंधियारा है।
वो जो तेरे स्पर्श-सा लगता था कभी,
अब सिर्फ तपन का इक इशारा है।
हर सुबह सोचती हूँ, तू भी जागा होगा,
शायद मेरी ही तरह कुछ खोया होगा।
पर तेरे बिना ये उजाला अधूरा है,
किरणें तो हैं, पर दिल में सवेरा नहीं।
तेरे नाम की धूप जब आती थी,
मन के भीतर फूल-सी खिलती थी।
अब हर रोशनी चुभने लगी है,
क्योंकि वो तेरी बाँहों से मिलती थी।
सूरज पूछता है रोज़ दरवाज़े से,
कब तक यूँ परछाई बनी रहोगी?
मैं मुस्कुरा कर इतना कहती हूँ
जब तलक किरण लौट न आयेगी।
सुरिंदर
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