सुरेश पैन्यूली   (अनन्वित क्लांत ✍️)
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Joined 13 June 2020


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Joined 13 June 2020

कितने दिन हुए
मुझे घर आए हुए
कितने दिन हुए
बाग मुरझाए हुए
कितने दिन हुए
तुम्हे मुस्कुराए हुए
कितने दिन हुए
इन ईंटों को
घर बनाए हुए
कितने दिन हुए
इन चार दीवारों को
मरे हुए
कितने दिन हुए
इनको तेरा एहसास हुए

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कुछ हैं जो हैं सांसों से बंधे
हैं कुछ तार जो दिल से जुड़े
दैहिक आकर्षण से जो है परे
वो ही संबंध हैं जग में बड़े

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जिसे था सजाया खूब हमने
जिसे था छुपाया सबसे हमने
आज वो शीशा भी टूट गया

जो था खूबसूरत जन्नत से भी
शहर था प्यारा जो दुनिया से भी
आज खंडर हो गया, लूट गया,

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ये चंचल चहक अदा तुम्हारी
ये मन्द मुस्कान उसपर भारी
आज बहकी सी हो ज़रा ज़रा
आख़िर ये नशा है किसका

यूँ तो उड़ान है आकाशों में
यूँ तो पहचान है अनजानों में
फिर महकती सी हो ज़रा ज़रा
आख़िर ये ख़्वाब है किसका

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लाख कोशिशों के बावजूद
आज तक भी..
किसी से भी...
सही से हिसाब बैठा नही पाया हूँ

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दबाये हमने
जो उफंते है भीतर-भीतर
ये वो दरया है साँसों का
जो उबलता है भीतर-भीतर

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जो कहते हो कि
रात को ऑनलाइन आना
रात भर जाग कर...
जी-भर, बातें करेंगे

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सूखे-प्यासे अधर ज्यों जाने
कि इन मेघों में नीर छुपा
जो डूबे तल तक वो जाने
कि इन सीपों में बीज छुपा
जो जुड़े मन के बंधन से, जाने
कि इन आँखों मे पीर छुपा

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बहुत हुआ गम-ए-तनहाई का मौसम
चलो मिलकर खुशियों को बुलाते हैं
बहुत हुआ मिलना शहरों की भीड़ में
चलो अपने लिए भी कुछ लम्हे चुराते हैं...

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मेरी ही नज़रों में देखो...
ज़रा बचना, ज़रा संभालना,
कही प्यार ना हो जाए
फिर से, कही तुम से

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