Surekha Navratna   (सुलेखा)
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Raipur, Chhattisgarh
Joined 16 July 2021


Raipur, Chhattisgarh
Joined 16 July 2021
3 MAY AT 15:49


बोझिल मन ,हल्का हो जाता है रोने के बाद,
बादल छट जाता है जैसे,बारिश होने के बाद।

आसानी से मिली वस्तु, महत्वहीन लगती है,
श्रम का मोल पता चलता है कमाने के बाद।

दरख़्तों के साये में, धूप का असर नही होता,
घर झुलस जाते हैं, बुजुर्गों के जाने के बाद।

ग़ैरों के लिए अपनो का तिरस्कार ठीक नहीं,
अहमियत समझ में आती है ,खोने के बाद।

घाव मामूली हो तभी ,मरहम पट्टी कर लीजे,
जखम् नासूर बन जाते हैं...,गहराने के बाद।

धुआँ-धुआँ रह जाओगे,ख़ुद भी सदियों तक,
दर्द की आग में अपनों को , जलाने के बाद।
_ सुलेखा .

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27 APR AT 18:38

कोई किसी का नही होता ज़नाब,संसार अनोखा है,
ये रिश्ते_नाते, अपनेपन का ढोंग,सब एक धोखा है।

ख़्वाहिशें बदलते रहते हैं लोगों के,वक़्त के मुताबिक,
तड़का लगता रहे, रहता तभी तक, रंग भी चोखा है।

तमाम_उम्र एक जैसा नहीं रहता है ? कुछ भी यहाँ,
सब बदल जाते हैं बंधु , जब_जब मिलता मौक़ा है।

ना कर उम्मीद वफ़ा_परस्ती की ,आज के दौर में,
दिन ब दिन बेमानी का राज, बढ़ रहा चौतरफ़ा है।

खोना-पाना चलता रहता है,इतना भी मलाल न कर ,
यही दुनिया है मेरे दोस्त...,यहाँ अक्सर ऐसा होता है।

_ सुलेखा.


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12 APR AT 18:20

कुछ गलती ऐसे होते हैं ,जिसकी कोई माफ़ी नही होती...
कानून कि दी सज़ा भी, उसके लिए काफ़ी नहीं होती।

अंतरात्मा के आवाज से,भाग सकोगे आखिर कब तक?
पवित्र गंगा में नहाने से भी साबित,बेगुनाही नही होती।

गुनाहों के दाग़, न अश्रुओं से धुलते हैं न गंगाजल से,
पश्चाताप कोई हृदय से करे, उसमें बनावटी नही होती।

अन्याय के विरूद्ध जब ईश्वर ,शस्त्र उठाते हैं तो फ़िर,
उसके अदालत में,कोई जाति और बिरादरी नही होती।

कर्मों का हिसाब_किताब भी, समय "यहीं" करता है,
"काल" के निर्णय मे ,किसी की दख़लंदाज़ी नही होती।

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8 APR AT 21:36

घुटन और बेबसी में जिया करती हूँ,
हर रोज़ मर-मर के ,जिया करती हूँ।

चिथड़े सी हो गई है ये ज़िन्दगी मेरी,
पैबंद लगा_लगाकर सिया करती हूँ।

किस ख़ता की ,मिली है सज़ा मुझे,
खुद से यही सवाल किया करती हूँ।

मजबूर हूँ ,मर नही सकती इसलिए,
ज़िन्दगी का ये ज़हर पिया करती हूँ।

दुनिया एक धोखा है ये देर से जाना,
हरेक भूल से सबक लिया करती हूँ।

_ सुलेखा.

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18 MAR AT 12:06

अजीज़ सारे देखते रह जाएंगे, तमाशाई की तरह,
गु़रूर खाक़ हो जाएंगे, एक रोज़ बनराई की तरह।

मज़ार में इत्तर चढ़ा या मस्जिद में फातिहा पढ़,
मंदिर में दिया जला ,हर रोज रौशनाई की तरह।

रूख़ पर नक़ाब लगा ..किरदार को ओढ़ा...परदे,
दाग़ तो फिर भी उभर आएंगे, झांई की तरह।

सात समंदर पार हो या हो ठिकाना तहखाने में,
बद्दुआ हमेशा पीछा करती है, परछाईं की तरह।

करके काज धृष्टता का, सुकून कौन पा सका है?
नेकी सदा साथ चलती है, _रहनुमाई की तरह।
_ सुलेखा.

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7 MAR AT 5:58


कैसी ये कसक़¹ है दिल में, क्या कमी सी रह गई है?
मुस्कुराते मुस्कुराते आंखों में थोड़ी नमी सी रह गई है।

सिल_सिला ये सांसों का, न रूकती है न चलती है,
कैसा सितम है ? सीने में बर्क़² जमी सी रह गई है।

आहिस्ता_आहिस्ता अब रूह बेज़ार सी होने लगी है,
क्या सांसों का चलन भी, ग़लतफ़हमी सी रह गई है?

कम्बख़्त दिल और दिमाग़ में,सुलह होता क्यूँ‌ नहीं?
बे_फ़ुज़ूल बातों में ,आजकल बरहमी³ सी हो गई है।

इबतिदा-ए-रौनक़⁴ तो ,”वक़्त” बहा ले गया ज़ानिब,
अब तो मुहल्ले में सिर्फ, ग़हमाग़हमी सी रह गई है।

_सुलेखा.

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1 MAR AT 13:27

कुरेद-कुरेदकर जख़्मो को हरा रखा करती हूँ,
तकलीफ़ों से ताल्लुक़ात गहरा रखा करती हूँ।

इजाफ़ा देख, लोगों की नीयत बदल जाती है,
इसलिए अब लेन_देन, _ख़रा रखा करती हूँ।

ख़ाली मन और मर्तबान शोर करते हैं, बहुत,
अत: हरेक शय, लबालब भरा रखा करती हूँ।

फ़ुज़ूल ख़याल रवां-रवां मन का बोझ बढ़ाते हैं ,
अब आते_जाते सांसों पर ,पहरा रखा करती हूँ।

नज़दीकीयां ही वज़ह बनती है, तकलीफ़ों का,
इसीलिए ,रिश्तों में फ़ासले ज़रा रखा करती हूँ।

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3 FEB AT 10:49

इरादे मज़बूत हो, तो मुसीबतें भी डर जाते हैं,
नाज़ुक पत्तियों को तो ,कीड़े भी कुतर जाते हैं।

उदासी भरे मन से, जि़न्दगी जिया नही जाता,
गुजरने को तो कैसे भी हो ,उम्र गुजर जाते हैं।

ज़माना रंगीन है, ज़रा मिजाज़ रंगीं रखा कीजे,
सादे _लिबास में ,हल्के दाग़ भी उभर जाते हैं।

दरो_दीवार खोखला होने में, वक़्त नही लगता ,
घरों के बु_नियाद में _ज़ब ,पानी भर जाते हैं।

नजरों से गिर जाने वाले, पुनः उठ नही सकते,
लाख जतन करके भी, वे दिल से उतर जाते हैं।

_ सुलेखा.



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25 JAN AT 6:56

दो तरफ़ा वफ़ा निबाहते हैं,लोग ईमानदार बहुत है,
देखिए, जो इस पार के हैं ,” वे” उस पार बहुत है।

जीते जी ज़िन्दगी में, कोई फर्ज निभाये न निभाये,
मरने के बाद यारों, धन_दौलत के हक़दार बहुत है।

अच्छे-अच्छे खो जाते हैं इसके चकाचौंध में अक्सर,
क्यूंकि ये पैसों की दुनिया, होती चमकदार बहुत है।

बहरहाल , अ’सत्य पराजित हुआ है हर एक युग में,
निस्संदेह इस युग में भी सच के तलबग़ार बहुत है।

तीर और तलवार तो लहु_लुहान करते ही है "सुलेखा"
रूह को क्षत-विक्षत कर देती है, ज़ुबाँ में धार बहुत है।

_ सुलेखा .

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18 JAN AT 22:33

चंद पैसों के लिए लोग जाने कैसे बदनीयत हो जाते हैं?
तोड़ देते हैं “ईमान” से नाता, ग़ैर ईमानियत हो जाते हैं।

पुरखों की सहेजी इज़्ज़त तिनके-तिनके बिखरा जाते हैं,
माँ-बाप के लिए नाक़ाबिल औलाद अज़ीयत¹ हो जाते हैं।

दंभ में चूर कपूत, माता-पिता के भावना क्या समझेंगे?
मरने से पहले ही नाम इनके, सारे वसीयत हो जाते हैं।

बेईमानी की पैसों से सब ख़रीद लोगे मगर सुकून नही,
और बाद एक वक़्त के दाग़दार ,आदमियत हो जाते हैं।

रिश्ते_नाते कहाँ मायने रखते हैं,ऐसे लोगों के नज़र में,
अपनो से प्यारे जिनके नज़रों में,मिलकीयत हो जाते हैं।

_ सुलेखा .

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