मुझे शौक नहीं किसी तरह के इंतेकामों का
मैं ज़िक्र नहीं करती उन मसलों तमामो का
मेरी सादगी मुझे किसी दिखावे से प्यारी है।
जहां शब्दों के मायने नहीं
वहां चुप रहने में समझदारी है ।-
कभी बैठे बैठे यादों में खो जाती हूं
कभी खुद को बहला कर सो जाती हूं-
इतनी दफा टूटे हैं..अब कोई गुंजाइश थोड़े ही है
अब जिंदगी जिए जा रहे हैं.. कोई फरमाइश थोड़े ही
हंस कर बात तो यूं करते हैं सभी से ..पर सबसे वफा थोड़े ही है
बन जाएं जो फिर मजाक .. कोई पहली दफा थोड़े ही है-
वो फूलों की बात करता है
मैं महक उठती हूं उसके पास होने से
नज़रें नहीं मिलाती कि खो न जाऊं उसमें
और डरती भी हूं ये इत्तेफाक होने से-
क्या पूछते हो किस्से, कुछ यूं हमारी कहानी है
गिरे , टूटे , समेटे गए और फिर टूटे...बस यही रवानी है
लिये तो फिरते थे हम भी दिल ... अब क्यों इसे पत्थर कहते हो
फितरत नहीं हमारी बदल जाना.. ये सब तुम्हारी निशानी है-
नहीं तकती राहें सूरज की , हर दीप मेरे में आशा है
है नहीं यक़ीन तकदीरों में , मैंने खुद ही लकीरों को तराशा है-
संकट की ये घड़ी कड़ी है
विपदा जग पर आन पड़ी है
एकजुट होकर दिखला दो
मानवता की ओज बड़ी है
मंदिर मस्जिद बंद पड़े हैं
ईश्वर भी रूप बदल रहा
खाकी पहने सावधान करे
वो पहन सफेदी लड़ रहा
घर में सुरक्षित हर जन होगा
ना आपदा को न्यौता दो
विपत्ति में चौकों नहीं
तुम विपत्तियों को चौंका दो-
चली जाती हूं उधर , जिधर मेरा सपना ले जाता है
नहीं होती फिक्र रास्तों की , उधर मेरा मंज़र नज़र आता है-
दीदार ए हुस्न को तरस गए वो जो शाम से हाथों में जाम लिए बैठे थे
महबूबा के आते ही जाम भी खनककर बोले वाह भाई क्या इंतजाम किए बैठे थे-
शब्दों का काफिर हूं
जज्बातों की गलियों में मेरा आना जाना है
है कलम मान लो दिल मेरा
कागज ही इसका ठिकाना है
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