और वह कह जाते है , मिथ्या भरी बातें ;
उन्हें ज्ञात नहीं
उनके बोले झूठ तैरते रहते है ,
निर्वात में "अनंतकाल " तक ..!!
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पृथ्वी की नाभि से,आकाश के मस्तिष्क तक।।©️
अच्छा... read more
मैं गंभीर नहीं तो ना सही
लेकिन मैं गंभीर ही हूं
हां हूं मैं शोर सभा का
लेकिन हूं सभा का धैर्य भी
हां मै चीखता चिल्लाता हूं
लेकिन हूं धरा का मौन भी ..
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फिर एहसास होता है
कितना अंतर है लिखने में
विचारों को अक्सर रोप देते है सफेद मिट्टी में
लेकिन जब भावनाओं का वक़्त आता है दरकिनार कर जाते है
अपनी भावनाओं के अस्तित्व को नकार देते है
और जलते रहते है भीतर
क्या सचमुच इतना कठिन होता है - सच लिखना
शायद नहीं ...
या शायद कमज़ोर पड़ जाते है
अब लगता है काश भावनाओं के बीज रोप दिए होते
कमज़ोर तना कभी तो दरख़्त बनता ...
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मैंने जो भी चाहा
जिससे भी प्रेम किया ;
सदैव मेरे निकट रहा
श्रृंगार के दूसरे पहलू से मेरी दूरी बरकरार रही हमेशा ,,
जब मन चाहा निहार लेती हूं
मेरी हर चाहत क्षितिज जितनी करीब है...
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जीतना चाहते है हम ..
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और फिर
एहसास होता है
हार जाना बेहतर है ..
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हां...
अब भी तुम्हारी भेजी बारिशें
मेरी आंखे चूमती है ;
जानती हूं ..
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तुम्हे पसंद है
भीगी बूंदों में मुझे "भीगा - सा" देखना ...!!
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और वह सूखा वृक्ष
आज भी प्रतीक्षित है
काले मेघ का ;
मृदु पत्रों से वृंत का
पुनः रक्षावरण देखने ,,
अधीर है ;
फलों का उन्माद
पुनः चहुंओर बिखेरने की कांक्षा है
क्यूंकि... चाह है ,,
फिर इक नीड़ की
सूखे वृक्ष को
पुनः कलरव की अभिलाषा है
क्यूंकि ..
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घृणा है उसे - " एकांत से " ।।-
अबोध शिशु की भांति
प्रेम को मुट्ठी में भिचने की चाह ,,
और अब,
प्रेम से लिप्त है वह ;
अनभिज्ञ था इस बात से -
प्रेम तितलियों - सा होता है
स्पर्श कर, लौटने पर ;
उंगलियां रंग जाती है
उन्ही रंगों में - " सदैव के लिए " ।।
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प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दूं..जरूरी नहीं ,
कर्ण को चुभे जो स्वर कर्कश ,
हो उनकी प्रतिध्वनि ..जरूरी नहीं ;
बन जाऊं जो कभी " मूकबधिर - सी " ,
कहो कोई आपत्ति तो नहीं ।।-
बेहतर है
भीतर से भरा होना ...
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भीतर से रिक्तता
भीतर तक तोड़ जाती है ... !!
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