झीने - झीने घूंघट में सोलह कलाओं वाला चांद
थोड़ा नटखटाता थोड़ा रिंझाता अमृत बरसाता चांद
पलकों के हिलोरे रू-ब-रू जैसे दर्श-ए-बाग-ए-बहिश्त
गालों से फिसल कर अधरों पर अटक कर मुस्काता गुलाबी चांद !-
● हम को... read more
उस तितली ने ढूंढ लिया नया गुल, नया गुलिस्तां
अब मेरे बागबां में बाजों का डेरा रहता है !!-
कहती है लिखते हो किताबें
कोई ग़ज़ल क्यूं नहीं लिखते
मैं हुस्न की नायाब इबारत हूं
तुम मेरे पन्ने क्यूं नहीं पलटते ?
तेरी आंखों के बना कर पत्र भेजूंगा
तेरी मुस्कुराहटों के बनाकर इत्र रखूंगा
पर इस दरिया में उतरने की हिमाकत मैं नहीं कर सकता
तुम मोह के जंगल की मोहिनी हो
और जंगल से अदावत मैं नहीं कर सकता !-
वैसे तुम विष दो या दो सुधा के प्याले
तुम्हारे हाथों की हर शै कबूल है
लेकिन इसे तुम नादानी कहो या कह लो लापरवाही
अब तो ताउम्र को ये खलिश रह गई
हाय मुझसे तुम्हारे हाथों की बनी वो स्वेटर मिस हो गई !
स्नेहिल उंगलियों से कैसे हर रेशा बुना होगा
एक हिस्सा बुनते-बुनते इक शाम ढली होगी
दूसरा हिस्सा बुनते-बुनते दूजा दिन उगा होगा
और हां ये सब तो बाद की कहानी है
रंग कौनसा फबेगा मुझ पर पुरा एक दिन तो इसी उधेड़बुन में गुजरा होगा !
पता क्या है तुम्हारा, कैसे तुम तक पहुंचाऊं
सच में सूर्य अंकित एक स्वेटर बुना है मैने
हर बार तुम टाल देते हो, कैसे तुम्हें समझाऊं
तुम्हारे इन्हीं प्रश्नों के साथ वो स्वेटर अलमारी में रखा रह गया
मन का सारा स्नेह आंसू बन पलकों पर अटका रह गया !
वैसे तो मन की हर तह छू लेता हूं मैं
मुस्कुरा कर यह दाग धो लेता हूं मैं
अब के जब फिर आई सर्दियां तो उजागर ये तपिश हो गई
हाय मुझसे तुम्हारे हाथों की बनी वो स्वेटर मिस हो गई !-
जीवन के पथ पर
सांसों के रथ पर
प्रभुत्व तुम्हारा हो रहा है
मुझे स्वयं की खोज में निकलना होगा
स्वत्त्व मेरा कहीं खो रहा है !
क्षण भर के हैं ये उन्माद
जिनका आलिंगन मुझसे हो रहा है
मैं बुझ रहा हूं धीरे-धीरे
कुछ तो है जो मुझमें अब सो रहा है
मुझे स्वयं की खोज में निकलना होगा
स्वत्त्व मेरा कहीं खो रहा है !
इक सुलगता सा चिंगार आंखों में गिर गया
फिर धीरे-धीरे मैं दहकती चिंगारियों से घिर गया
तुम जबसे चले गये हो सूखी पलकों को छूकर
तब से सब हंस रहे मगर मन रो रहा है
मुझे स्वयं की खोज में निकलना होगा
स्वत्त्व मेरा कहीं खो रहा है !-
ये लज्ज़त भरा शाम का किनारा
गीला मंजर और मुस्कुराता मुख तुम्हारा
तुम्हारी निस्बत में दिन पलकें झुका रहा है
ओट में अपनी मुझे हमेशा को सुला रहा है
मगर सोने से पहले इक वादा ले लूं
आखिरी दफा क्या हाथ तुम्हारा छू लूं ?
फिर जाने किस सदी के सवेरे मुलाकात हो अपनी
क्या पता दोनों सामने बैठें रहे फिर भी बात न हो अपनी
फिर क्यूं न तुम्हारी इक मुस्कुराहट अपने साथ ले जाऊं
काल के जिस भी हिस्से में रहूं वहीं उसी संग ईद-दिवाली मनाऊ
मुझे पता है तुम्हारे संग जैसा जीवन मिलेगा न मुझे दोबारा
ये लज्ज़त भरा शाम का किनारा
छूटता मेरे हाथ से हाथ तुम्हारा
गीला ये मंज़र और मुस्कुराता मुख तुम्हारा !-
जाने कितनी रोज़ दीवारों से टकरा कर दम तोड़ देती है
और जाने कितनी 'चीखें' चीख-चीख कर मौन हो जाती है
रूह कांप जाती है ये सोचकर मेरी
जाने कितने लाज भरे आंचल जवानी में उजाड़ दिये जाते हैं
और रोज जाने कितनी बच्चियां बचपन में जवान हो जाती है !
मुझे लगता है भगवान तो उस हादसे के वक्त ही मर जाता होगा
लेकिन जब इक लड़की निकलती है दहलीज़ से बाहर
अपने हाथों में अपनी बिखरी आबरू के टुकड़े लेकर
आदमी जिंदा तो रहता है मगर उसी क्षण आदमियत की भी मौत हो जाती है— % &-
पैदल चल रही भावनाएं मेरी
तुम तक पहुंचते देर हो जायेगी
तुम ठहरना , इंतजार करना
वरन् इक संभावित प्रेम कहानी मौन हो जायेगी !
जिन तपती आंखों में पकाया है स्वप्न तेरा
वहां पावस ऋतु का डेरा रहता है
मन तो तेरे जाने से पहले ही सहमा-सहमा रहता था
अब तो वहां दर्दों का भी फेरा रहता है
मेरे दृगजल का बोझ लेकर चल रही भावनाएं मेरी
तुम तक पहुंचते शायद देर हो जायेगी
तुम उस फटे पन्ने को याद करना और विचार करना
नहीं तो तुमको लिखी ये डायरियां मेरे लिये 'कौन' हो जायेगी
तुम ठहरना , इंतजार करना
वरन् इक संभावित प्रेम कहानी मौन हो जायेगी !— % &-
तनिक मात्र भी नहीं अंतर
पुष्प सज्जित पूजा के थाल में
और तेरे बिंदी शोभित भाल में
जैसे वो प्रज्वलित दीप
वैसा ये अरूणिम वदन है
गीले फूलों की पंखुड़ियों वाली बूंदें
तेरी बरौनी पर भी तो मगन है !
ये थाल अर्पित किसी अलौकिक शांति को
तुम्हारा मुख अर्चित मेरी लौकिक शांति को
ज्यों ये कुमकुम इक तिलक प्रयोजन को है
ये बिंदिया तुम्हारी भी तो उसी आयोजन को है
हर सूक्ष्मता से खोज कर देख लिया , मगर
नहीं श्लेष मात्र भी अंतर
इस पुष्प सज्जित पूजा के थाल में
और तेरे बिंदी शोभित भाल में !— % &-
दिल रूठा है मुझसे कल परसो से
कहता है........
तेरे होते कैसे बांधी पायल उसने झुक के ?— % &-