कोई पूछे तो क्या कहें हाल-ए-दिल,
हमें ख़ुद से अब कोई वास्ता नहीं
जो गुज़र गई वो गुज़र ही गई,
इस फ़साने में अब कोई बाक़ी गिला नहीं-
दिल-ए-उमंग को हर बार क्यूँ संभालूँ मैं?
बिखरने दूँ न कि इक बार फिर संवारूँ मैं?
बला-ए-दिल से अगर रिहाई मुमकिन थी
तो क्यूँ हर एक ग़म को ज़ख़्म बना सँवारूँ मैं?
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बेनक़ाब हुए वो चेहरे, जो परचम-ए-हया थे कभी,
अब फ़ितरतें भी सस्ती हैं, जो कभी वफ़ा थे कभी।
जिन बाज़ारों में रूहें बिकीं, वहाँ ख़्वाब भी औक़ात पूछते हैं,
अब नक़ाबों के उस पार भी, सौदे इज़्ज़त के ढूँढते हैं।
कल तक जो साये थे, वो आज धूप के मारे हैं,
जो ख़ुद को मिटा बैठे, वो नाम के सहारे हैं।
मंज़र भी वही हैं, नज़ारे भी वही, मगर नजरिया बदल गया,
अब हुस्न ही सजदा है, और इबादत का ज़रिया बदल गया।
शोर है जमाने में, मगर खामोशी की चीख़ सुनाई देती है,
जहाँ इज़्ज़त की बोली लगे, वहाँ बर्बादी दिखाई देती है।-
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तू पास था फिर भी तुझे महसूस न कर पाया,
जिन रातों में सिवा तेरे ख्वाबों के कुछ न था कभी कभी।
तू था जहाँ, वहीं हम थे फर्ज़ से दूर,
मगर ज़िन्दगी के सफ़र में ये पल थे कभी कभी।
सच्चाई से डरकर हमने मोहब्बत छोड़ दी,
पर फिर भी मूझे तेरी ज़रूरत महसूस होती रही कभी कभी... ✍️-
दिल को बिखरने का सलीका भी नहीं आता अब,
ग़म-ए-हयात ही खो जाए तो फिर क्या होगा.... ✍️-
मजबूरी का साया हर इक राह पर है,
हर साँस में उलझन, हर इक चाह पर है।
जो अपना था, अब अजनबी सा लगे,
ये कैसी सज़ा मेरे गुनाह पर है?
न नींद अपनी, न ख्वाबों में राहत,
हर लम्हा बिखरा मेरी आह पर है।
दुआएं भी अब बद्दुआ बन गईं,
ज़िंदगी ही जैसे सिपाह पर है।
जो ताक़त थी, वो आज लाचार बैठी,
वक़्त का ज़ोर मेरे पनाह पर है... ✍️-
ग़मों की आँच में जलते हुए ख़मोश चराग़,
कोई तो आए, हवाओं से बचा ले मुझे।
मैं रेत था, जिसे राहों ने बेवजह ठुकराया,
अब कौन हाथ बढ़ाए, कौन समेटे मुझे।
पत्थरों में ढलते-ढलते मैं खुद पत्थर हो गया,
कोई अश्क़ बन के आए, पिघलाए मुझे।
तेरी आग़ोश की चाहत में बिखरता ही गया,
तू एक बार तो देखे, तू बुलाए मुझे।
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ये ग़म की शबें, ये सन्नाटे गहरे,
कोई दर्द अपना ही सुनता नहीं है।
क़लम से लहू टपकता रहा,
मगर हर्फ़ काग़ज़ पे बनता नहीं है।
कोई पूछे कभी तवायफ़ से जाकर,
इश्क़ बिकता है? कि बिकता नहीं है... ✍️-