Sunita Sinha   (Sunita)
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Joined 19 January 2017


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22 APR 2020 AT 8:11

आसान है भीड़ में अकेला हो जाना
परन्तु अकेलेपन में भीड़ के
बढ़ते दबाव को महसूस करना
उनसे बचने की तमाम कोशिशों के बावजूद
कानों में उनकी चीख़
और मस्तिष्क में ऊहापोह

मैं तुमसे बता रही हूँ
उन हालातों को जीते हुए
मैं सम्वेदना शून्य हो गयी हूँ
जिसमें मेरा कोई हिस्सा नहीं है

मैं दो दुनिया के बीच कब से खड़ी हूँ
और मेरे पाँव निरन्तर पूछ रहे
" जाना किधर है ?"

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7 JUN 2019 AT 8:59

कम शब्दों के बोल अमोल
लाग लपेट ना हीं कोई झोल
मनभावन कलाकार की भाँति
ऐ सखी साजन ? ना सखी स्वाति !

कोकिल कंठ तिस पर सुघड़ता
सहज, सरल, सौम्य, शुचिता
बहाए प्रेम की अजब लहर
ऐ सखी साजन ? ना सखी सहर !

जन्मदिन मुबारक... स्वाति 'सहर' !!!

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29 APR 2019 AT 10:58

हर बार ढूंढ लिया करती थी एक न एक वज़ह गिरकर पुनः संभल जाने की और दे जाती एक मुस्कान... क्योंकि, वह हर वो बात समझना चाहती थी जिसे समझने की पात्रता से उसे नकार दिया जाता था।

आज जबकि वो सबकुछ समझ चुकी है फिर भी जान बूझकर गिरती है क्योंकि, उसे डर है उस मुस्कुराहट के खो जाने का जिसे देखकर वह हर दफ़े उठ जाया करती है।

"छोड़ो, तुम नहीं समझोगे !!"

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2 FEB 2019 AT 10:41

सोच का प्रभावित होना
तत्कालिक परिवेश के उछालों से
रथ के उस चक्के की भाँति
जिसमें बहाव है, मंथन है पर गति नहीं है
चक्कर खा रहा किसी गह्वर में
जिसमें भटकन के असंख्य कीड़े बिलबिला रहे
जिसमें धाराएँ उपधारायें सभी
अवरुद्ध हो जाने को विवश ;

परन्तु वर्तमान उल्लसित
आँखों पर पट्टी बांधे गांधारी सरीख़ी
अतीत और भविष्य की चाहनाओं में गुम ;

जाओ कहो कोई
अनासक्त पार्थ ने गांडीव वापस उठा ली है
और समय के प्रवाह को केशव भी न रोक पाएंगे अब !!

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31 DEC 2018 AT 15:35


निःसंदेह मानकों पर चलना सुरक्षा देता है और आदर भी दिलाता है परन्तु संभावनाओं का दायरा सीमित कर देता है। जीवन बाध्य नहीं है कि सब कुछ माप-तोल कर करे या आदर की पात्रता ले। जीवन इससे परे है, नियमों में नही बंधता।

मानकों के चक्कर में प्रायः हम अपना या अपनों के 'मूल' व्यक्तित्व को काट छाँटकर, ठोक बजाकर 'प्रतिलिपि ' मात्र बनने को मजबूर कर देते हैं।

जो नियमों से नहीं चलते अपितु उसे समझकर अपने मानक स्वयं गढ़ते हैं उनकी सफलता अधिक मूल्यवान हो जाती है।

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17 DEC 2018 AT 19:48

मेरा एक घर है
छोटा-सा
मगर बड़ा बहुत है
असंख्य विचारों की रिहायश है
ख़्वाहिशों का खज़ाना बिखरा है
दिशाएँ अनेक हैं
तापमान और दाब की विषमताओं से
पुरवा, पछुआ, चक्रवाती, सुनामी, वरदा भी
आते रहते हैं वक्त बेवक्त ;

मेरा कोई स्थाई कमरा नहीं है इधर
मैं वहीं रह लेती हूँ
जहाँ विभिन्न विचार
दिशाओं के छोर से स्वत: टकराकर
एक बिंदु पर आ मिलते हैं
जब मलय पवन आती है

मेरे बड़े से घर में... !!

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25 NOV 2018 AT 13:36

सुबह की गुनगुनी धूप
तुम्हारी मुस्कान सरीखी

गुम है

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4 NOV 2018 AT 7:10

"गीता" और "गांडीव" के मध्य
जीना है एक पूरा जीवन
मरना है एक पूरी मृत्यु...

अभी कुछ वक़्त ठहरना होगा
अपने लिए या
अपनों के लिए... ?

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14 JUN 2018 AT 19:13

जीवन के ताने बाने को कसते-ढिलते
असमतल रस्ते और दीवारों को ढ़ाते
तफ़सील से उकेरे गये सपने को बचाते
वह बढ़ता है ;

बेलचा, करनी, हथौड़ा लिए
तसले में मलवा बटोर
सिर पर रखे हुए

स्कन्ध बोझिल
पर बढ़ना चाहता है
आगे ही आगे
नहीं करता समझौता
मुश्किलों के बाट बटखरों से

फिर भी मिल जाते हैं
हर मोड़ पर काई की तरह ढीठ
परंतु नरम दिखायी देने वाले
चित करने को आतुर प्रश्नों के अंबार
जो उलझाकर ज़िन्दगी के कई पन्ने ले जाते हैं

मघ्यमवर्गी जीवन के सवाल वस्तुनिष्ठ क्यों नहीं होते ?

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25 APR 2017 AT 14:38

ग्रीष्म में भाव संजो रही हूँ
नयन उलझे-उलझे से हैं
बेला,चमेली, जूही, कनेर की डालियों में
गुलमोहर की चटक कलियों में
अमलताश के मोह-पाश के जद में हूँ
सेमल के पुष्पित होने का इंतज़ार है
बोगनबेलिया की पत्तियों से मौसम गुलज़ार है
क्यूँ न ख़याल करूँ गेहूँ की पकी बालियों की
आम के फॉंकों से सजी थालियों की
नींबू की शिकंजी, बेल के शरबत की
तरबूज़े की लाली, लीची के गुच्छों की
यूँ तो मुकम्मल कुछ भी नहीं होता
क्यों वक्त व्यर्थ करूँ पसीने पोंछने में
या एयर कंडीशन्ड कमरे में बैठने में !

कुछ एेसी ही हसरत और ज़रूरत है प्रिये !
मेरी और यक़ीनन
तुम्हारी भी !
~ Sunita

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