अगर भोजन में केवल मिठास होता ,
ना नमक, ना मिर्च और ना ही खटास होता ,
तो एक रस से भरा वह व्यंजनों का थाल
कितना ही बेस्वाद होता|
अगर आसमां में केवल सूर्य का तेजस्वी स्वरूप होता,
ना ही तारों का समूह और ना ही चंद्र का नूर होता,
तो वह आलोकित नभ मंडल ,चांद की शीतल चांदनी से
कितना ही महरूम होता|
अगर राह में पत्थर की तरह हीरा पड़ा होता ,
सोना और चांदी भी बालू के ढेर सा होता,
तो कौन पूछता उस हीरे ,चांदी ,सोने को
उनका दाम तो कौड़ी के समान होता |
अगर जिंदगी में केवल सुख और आनंद होता ,
ना कोई गम, ना मुश्किल और ना ही संघर्ष होता ,
तो खुशियों की कीमत ना आंक पाते हम ,
जीवन का वह सफर कितना बेमजा, कितना बेजार होता |
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जिंदगी तूने मुझे किस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया ,
पास सब कुछ है मेरे पर ख्वाहिशें अब ना रही बाकी है |
तुझे मुकम्मल बनाने का प्रयास अनवरत रहा जारी,
पर तुझ में रंग भरने की मेरे पास अब ना बची कोई स्याही है |
दूसरों के अनुसार ढलने की कोशिश भी की मैंने ,
पर खुद को उस सांचे में ढाल सकूं मैं ,अब तक मिली ना मुझको वो माटी है|
वक्त के थपेड़ों से थक कर मधुशाला की चौखट भी लांघी हमने,
पर मुझको मदमस्त कर सके ,ऐसा जाम ना वहां कोई साकी है|
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एक टूटते तारे को देख अनायास ही उससे मैं प्रश्न कर बैठी ,
"ऐ टूटते तारे क्या तुम वास्तव में हमारी मुरादे पूरी करते हो?
या फिर अपनी अहमियत जताने के लिए झूठा ही तुम दंभ भरते हो"
टूटता तारा थोड़ा हताश हो बोला -
"मैं कौन हूं तुम्हारी कामना पूरी करने वाला ,
मैं तो आज स्वयं ही हूं अपना अस्तित्व खोने वाला |
जो खुद आसमान से धरती पर गिर रहा हो ,
वह कैसे तुम्हारी इच्छा को पंख दे पाएगा |
यह तो तुम्हारे कर्म ही है जो तुम्हारी ,
कल्पना शक्ति को शिखर तक पहुंचाएगा |
ईश्वर भी उसकी सहायता करता है ,
जो अपनी सहायता खुद करते हैं |
भक्ति की कठोर तपस्या से विह्वल होकर ही
भगवान भी उसे दरस देते हैं |
तो कर्म करते चलो ,तुम्हारी इच्छाएं स्वयं पूरी हो जाएगी |
मेहनतकश इंसान को उसकी किस्मत ही
आसमान की ऊंचाइयों तक ले जाएगी |"
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आसमान में कल उड़ा एक सुंदर उड़न खटोला ,
जिस पर सवार था 242 यात्रियों का झुंड अलबेला |
बच्चे ,बूढ़े ,स्त्री -पुरुष, नवजात भी थे छोटी-छोटी आंखें खोले,
अपने मंजिल की ओर बढ़ रहे थे करते हंसी -किलोलें |
पर नियति ने उन पर ऐसा किया वज्र का आघात ,
एक इमारत से टकरा गया वह विमान अकस्मात |
आंख के गोले में बदल गया वह हिंडोला ,
मृत्यु का दूत बन गया वह अभिशप्त खटोला |
चारों तरफ फैला था धुएं का अंबार गहरा ,
यमदूतों ने लगाया था वहां जिंदगी पर पहरा |
265 जिंदगी को अपने आगोश में भर ,
मृत्यु मचा रही थी वहां तांडव घनेरा |
यह भयावह दृश्य एक दुश्वप्न की भांति ,
उठा रहा हर दिल में एक भूचाल है |
जिस जिंदगी को हम अपना है मानते आए ,
उस पर हमारा नहीं सिर्फ और सिर्फ नियति का अधिकार है |
ओम शांति 🙏🙏-
हमारे वीर जवानों ने जो कहा वो कर दिखलाया है ,
दहशतगर्दों को उनके देश की मिट्टी में ही मिलाया है |
हमारी बेकसूर भाइयों का जिसने कत्लेआम किया ,
इंतक़ाम की ज्वाला में उन आतंकियों को ही जलाया है|
अपनी बहनों के राखी का उन्होंने कैसे कर्ज चुकाया है ,
"ऑपरेशन सिंदूर "चला उनको इंसाफ दिलाया है |
यूं तो पूरे विश्व में हम "अहिंसा के पुजारी "कहलाते हैं ,
देश पर जब आंच आए तो हम भी शस्त्र उठाते हैं |
सुदर्शन चक्र चला उन अधर्मियों को मृत्यु के घाट उतारा है ,
इस" हिंद की सेना" ने न्याय और धर्म का परचम जग में फहराया है|
जय हिंद की सेना 🙏🙏-
हुई स्तब्ध मानवता ,शर्मसार ये दुनिया है |
मनुष्य के पाश्विक कृत्य से हैरान यह दुनिया है |
रगो में रक्त नहीं मानो विष दौड़ता उनके ,
मानव जाति को कलंकित करती ,उनकी आसुरिक प्रवृत्तियां है |
निर्दोष लोगों का कत्लेआम करते फिर रहे |
मजहब के नाम पर रक्त का व्यापार करते फिर रहे |
अपने को धर्म का मसीहा कहने वाले ,
दरिंदगी की हर हद को पार करते फिर रहे |
बस बहुत हुआ ,अब और नहीं ,अब और न सह पाएंगे हम |
अपने भाई बहन के कातिलों को यूं ही बख्श ना पाएंगे हम |
मोदी जी सेना से कह दे ,कर दे आतंकियों की नस्ल साफ |
पूछता है समूचा भारत, कब होगा आखिर इंसाफ ?
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वो बचपन के किस्से, वो छुटपनन के फसाने |
गुदगुदाते हैं दिल को, वो पुराने तराने|
वो निश्चल हंसी ,वो अल्हड़पन |
वो भाई बहन की मस्ती, वो निष्पाप मन|
मन भागता है उन्हीं बचपन की गलियों में ,
जहां छुटपन के खेल खेले थे हम मासूम कलियों ने |
पर वो कलियां आप परिपक्व हो गई है |
समझदारी में हमारी मासूमियत कहीं खो गई है |
जिम्मेदारियां ने हमें नयी पहचान दी है |
वो बचपन की मस्ती दिवास्वप्न बन गई है |
पर यह दिवास्वप्न मन को लुभाता है |
वो गलियारा हमें रह रहकर बुलाता है |
जैसे बाहें पसारे कर रहा है हमारा इंतजार ,
हमारे बचपन को अपने में जिंदा रख ,
हमें गले लगाने को है वह बेसब्र व बेकरार|-
तेरे तत्वों से बनी हूं मैं ,तेरे तत्वों में मिल जाऊंगी |
ऐ प्रकृति तेरा अंश हूं मैं ,तुझमें विलीन हो जाऊंगी|
बहती नदी की भांति मुझको भी बहते जाना है |
सागर में मिलती जैसे वह ,मुझको तुझमें समाना है |
अपनी बाहों को खोल मुझे अपनी आगोश में भर लेना |
तेरी गोद में सोने की मुझको थोड़ी सी तू जगह देना |
तेरा संजीवनी स्पर्श पाकर मैं फिर नवजीवन पाऊंगी |
एक नवीन रूप में मैं फिर इस धरती पर आऊंगी |-
हम लड़ते थे ,झगड़ते थे फिर पल में मान जाते थे ,
भाई -बहन ,दोस्तों के साथ घंटों बतियाते थे ,
कभी कित- कित तो कभी कबड्डी
तो लाइट जाने पर लुका-छिपी का लुत्फ उठाते थे,
वो भी क्या दिन थे जब हम बचपन के खेलों का
जी भर कर आनंद उठाते थे|
पापा की उंगली थामें शाम को घूमने निकल जाते थे ,
जो मन हो वह सारी जिद उनसे पूरी करवाते थे ,
ना कोई भय था ना कोई चिंता ,
उनके साए में बेखौफ नजर आते थे ,
वो भी क्या दिन थे जब पिता के संरक्षण में
हम स्वच्छंद जीवन बिताते थे|
मम्मी- मम्मी कहकर घर आते ही मां से लिपट जाते थे ,
स्कूल की सारी बात सबसे पहले उनको ही सुनाते थे ,
झूला झूलते -झूलते उनके हाथों से
खाने का एक-एक निवाला खाते थे ,
वो भी क्या दिन थे जब हम मां के आंचल में
इस दुनिया की सारी खुशियां पाते थे|
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मैं एक ईट प्रस्तर से बनी खाली इमारत हूं |
ना कोई शख्स बसता है मुझमें बस बेजान इबारत हूं |
धीरे-धीरे भग्नावशेषों में बदलती जा रही ,
ढहने के कगार पर खड़ी मैं एक बेमानी अकारत हूं |
मुझमें भी स्पंदन था, जीती थी मैं भी कभी |
नई नवेली दुल्हन सी सजी थी मैं कभी |
मुझ में बसते लोगों के सपनों को जिया था मैंने भी कभी|
उनके साथ हंसती और रोती थी मैं भी तभी |
पर अब उनके बिना मैं एक पिंजर मात्र हूं |
निशब्द ,तटस्थ ,मौन और उदास हूं |
अपने अवशेषों को मिट्टी में मिलते देखने हेतु ,
मृत्यु शैया पर लेटे भीष्म की भांति मैं आज हूं|
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