जज्बातों की अतिवृष्टि में भी
होठों पर बात नहीं आती,
तनहाइयां दरबदर टूट रही हैं मेरी
कमबख्त ये वस्ल की रात नहीं आती।
दिन में आखिर चांद की
बिसात क्या होती है,
रुसवाईयां तो बहुत होती हैं
मगर बात कहां होती है।
मेरी खामोशियों के मजलिस में
अब तो सिर्फ तेरी ही बात होती है;
ख्वाहिश-ए-गुफ्तगू की हिमाकत करें भी तो कैसे ऐ हमनशीं
हर वक्त तेरे हिज्र की बरसात होती रहती है।
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