वो जो बेफिक्र सी, बेखबर सी,
अपनी दुनिया में रहती थी।
अपने हर सपने को डायरी के,
आख़िरी पन्ने पर लिखती थी।
पन्नों के ही बीच कहीं,
कुछ फूल सुखाया करती थी।
वो चुप रह कर ही लोगों में,
दुनिया को खूब समझती थी।
लफ़्ज़ों से मोहब्बत थी उसको,
ख़्वाबों को संजोया करती थी।
वो कैसी है? देखी है कहीं?
कई साल हुए, मुझे मिली नहीं।
तुमको जो मिले, उस से कहना,
है याद किया, किसी अपने ने।
कल बाग़ में चलते, राह में वो,
मुझसे शायद टकराई थी!
मैंने रोका, पर रुकी नहीं,
मुझे पहचान नहीं वो पाई थी।
वो कहाँ गयी, कुछ पता नहीं ,
रहती है कहाँ, कुछ कहा नहीं।
कुछ आँखें मेरी नम सी हैं,
कुछ फूल रखे हैं कोने में।
इस दिल की गहरी परतों में,
शायद वो मिले, अब बरसों में।
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