श्रृंगार इस धरा का वन पवन है पावन।
जब पेड़ काटते हम रोता है आज सावन।।
पेड़ एक लगा कर भूमि को हम सजा ले।
स्वर्ग से भी सुन्दर पृथ्वी को हम बना ले।।
भूमि को हम सजा ले गर पेड़ हम बचा ले।
कुछ इस तरह से हम #पृथ्वी_दिवस मना ले।।
पेड़ पौधों से भर लहरे धरा का आँचल।
बन 'अमृता' सी बाहें दायित्व हम निभा लें।।
जननी जगत की यह मातृभूमि पृथ्वी।
पालती समष्टि कर नूतन नवीन सृष्टि ।।-
श्रृंगार इस धरा का वन पवन है पावन।
जब पेड़ काटते हम रोता है आज सावन।।
पेड़ एक लगा कर भूमि को हम सजा ले।
स्वर्ग से भी सुन्दर पृथ्वी को हम बना ले।।
भूमि को हम सजा ले गर पेड़ हम बचा ले।
कुछ इस तरह से हम #पृथ्वी_दिवस मना ले।।
पेड़ पौधों से भर लहरे धरा का आँचल।
बन 'अमृता' सी बाहें दायित्व हम निभा लें।।
जननी जगत की यह मातृभूमि पृथ्वी।
पालती समष्टि कर नूतन नवीन सृष्टि ।।-
आज के धनानंद सत्ता भोग के मद में चूर होकर चाणक्य को धिक्कार रहे है
भूल गए है शिक्षक के सामर्थ्य को
चाणक्य ने किसी चंद्रगुप्त को तैयार किया तो
इनका ये कोरा साम्राज्य क्षण भर में पत्तो की भांति बिखर जायेगा।-
बड़े शहर विकसित शहर
बड़े भवन ऊँचे बहुत ऊँचे भवन
इनमें रहने वाले बड़े बहुत बड़े लोग
मजदूर बहुत मेहनती बहुत मजबूत
ऊँचे बहुत ऊँचे भवन निर्माता मजदूर
बड़े लोगो के दिल में न समाता मजदूर
धोखा बहुत बड़ा धोखा खाता मजदूर
बड़े होटलों में खाना बनाता मजदूर
बना खाना ऑफिस पहुँचाता मजदूर
बड़े लोगों के कपड़े धोता मजदूर
दिन हो या रात कब सोता मजदूर
शहर की सफाई करता मजदूर
शहर में ही दवाई को होता मजबूर
बड़े लोगो के दिल मे न समाता मजदूर
धोखा बहुत बड़ा धोखा खाता मजदूर
खुद डरता मजदूर को डराता शहर
मजबूर पर ये कैसा कहर ढाता कहर
मजदूर को शहर से भगाता शहर
कोरे मकान निहायती खोखले मकान
ओछे लोग बहुत ही ओछे लोग
कोरा रे कोरा बहुत कोरा शहर
बौना रे बौना बहुत बौना शहर
- सुमित कुमार दुबे-
श्रृंगार इस धरा का वन पवन है पावन।
जब पेड़ काटते हम रोता है आज सावन।।
पेड़ एक लगा कर भूमि को हम सजा ले।
स्वर्ग से भी सुन्दर पृथ्वी को हम बना ले।।
भूमि को हम सजा ले गर पेड़ हम बचा ले।
कुछ इस तरह से हम #पृथ्वी_दिवस मना ले।।
पेड़ पौधों से भर लहरे धरा का आँचल।
बन 'अमृता' सी बाहें दायित्व हम निभा लें।।
जननी जगत की यह मातृभूमि पृथ्वी।
पालती समष्टि कर नूतन नवीन सृष्टि ।।-
समाज श्रेष्ठ लोगों से घबराता है
यही कारण है कि उसमें स्त्रियों को समकक्ष मानने का साहस नहीं है।-
पथरीली हैं राह विकट
किन्तु मंजिल भी निकट
चल पड़ तू त्याग कर
नींद चैन और सुकूँ
देख तेरा यह जुनूँ
विजय 'श्री' चरणों में है-
हाथ, जिन में हो जुनूँ, कटते नहीं तलवार से;
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से।
हम तो निकले ही थे घर से, बाँधकर सर पे कफ़न
जाँ हथेली पर लिये लो, बढ चले हैं ये कदम।-
बटोर कर कागज़ी खैरात को
बन बैठे है शिक्षा के ठेकेदार जो,
बोलने तक का इल्म नहीं है
ऐसे चाटुकारो के प्रधान को ।।
-