तुम्हारे साथ के सुगंध से
जब मेरा व्यथित मन
यकायक विश्राम पा लेता है
और मेरी विचलित सांसे
पुनः अपनी निर्धारित धुन में
चलने लगती हैं
तब मुझे समझ आता है
पीपल के पेड़ पे
वन लताओं का
एक दूसरे से उलझे उलझे
उग आने का रहस्य...-
कोई तख़ल्लुस ... read more
अब वैसी बात नहीं होती...
हजारों दफा मिलने पर भी
एक मुकम्मल मुलाकात नहीं होती
जो एक बार छूट जाता है
वो बार बार छूटता रहता है...
एक बीत चुका रिश्ता और दो टूटे लोग
एक साथ बस झूठे ठहाके लगा सकते हैं
उनके बीच अब वो पुरानी सी हंसी दोबारा नहीं आ पाती....-
'प्रेम' पर लिखी कविता पढ़ते हुए,
मुझे आता है तुम्हारा ख़्याल ...
और सोचती हूँ अक्सर...
तुम किसे सोचते होगे...प्रेम पढ़ते हुए....
जब उलझा देती होगी कोई प्रेम कविता तुम्हें ,
तुम सोचते होगे अपनी किस प्रेमिका के बारे में...
किसी प्रेम कविता में जब लिया जाता होगा ,
दूर शहर में रहने वाली प्रेमिका का नाम ...
क्या तब भी एकाएक नहीं आ जाती हैं तुम्हें मेरी याद?
या फिर भूल जाना कुछ ज्यादा ही आसान रहा मुझे ।-
क्या कहा वादा-ए-क़ुर्बत भूल गये ?
तुमने कहा था तुम्हारी मोहब्बत हूँ मैं
सहूलियत मिलने पर बात करते हो
क्या अब फक़त इक आदत हूँ मैं?-
नाग हज़ारों लिपट जाते हैं बदन से ,
सर्पों के शहर में पेड़ संदल का,ना होना ही बेहतर. . .-
उल्फ़त-ए-वतन की अब रवायत कहाँ है
देशभक्ती पर भी मजहबी मोहरें लगने लगी है-
........सफर.....
अब मुझे पसंद नही है कहीं सफर पर जाना. . . .
इन तेज भागती गाड़ियों के भीतर बैठ तेज भागते नजारों को देख मेरे मन में एक टीस उठती है. . .
मुझे याद आने लगते हैं वो लोग जो मेरी जिंदगी में अचानक ही आ गये थे फिर लौट जाने के लिये. . .
खै़र वो आये तो अपनी मर्ज़ी से और गये भी अपनी ही मर्ज़ी से...
पर जाते-जाते ले गये अपने साथ मेरे जीवन का एक हिस्सा,
और छोड़ गये मेरे अस्तित्व पर अपने वजूद की एक अमिट छाप. .
जिन्हें चाह कर भी रोक ना पायी मैं . . .
बस बेबस बुत सी देखती रही अपने आँखों से ओझल होते हुए !!-
जानां ,
हाँ! मैं जानती हूँ
तुम मौजूद नहीं हो आसपास मेरे
पर तुम्हारा न होना ही
तुमसे ज्यादा.. बहुत ज्यादा..तुम्हारा होना है !
मेरे रुखसार पे जो लिखीं थी ना
कुछ नज्में उस रोज , तुमने अपने लबों से,
अभी उन नज्मों को पढ़ा मैंने अपने बन्द आखों से . .
हाँ! जबकि तुम नहीं हो
तुम्हारी उँगलियों के लम्स से मेरे पेशानी पर लिखी
गजलें भी दोहरा लेती हूँ
बार-बार हर्फ-दर-हर्फ उतार लेती हूँ
मैं तुम्हें अपने ख्यालों में हूबहू जैसे तुम हो वैसे ही. . .
पर जाने क्यूँ पलकें बंद रहतीं हैं
मैं करती नहीं हूँ, कसम से !!!
ख़ुद-ब-ख़ुद हो जातीं हैं कमबख्त!
ठीक भी है शायद ..
तुम्हें महसूस करने के लिये
बन्द आँखों से बेहतर कुछ हो भी नहीं सकता शायद!-
जरा होश हुआ करता है
जरा से तुम हुआ करते हो. . .
फिर मेरे ख्यालों के नक्शों में सब कुछ
धुंधला सा लगने लगता है
हाँ मैं लगा लेती हूँ अपना चश्मा भी
फिर भी कुछ है जो दिखता कम हैं,महसूस ज्यादा होता है
एक अलसाया सा दर्द, हल्की सी टीस
और गुनगुना सा सुकून, बिखरा रहता है आसपास
फिर बड़ा दिलकश होता धीरे धीरे इस मदहोशी में डूब जाना . . .
"क्या तुमने कभी अपने पैरों पे धूप नाचते देखा है जानां ?"-
देख कर शर्मिंदा है गिरगिट भी फ़न इंसान का ,
नादान खुद को शाह-ए-शातिर समझता था. . .
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