ग़मों का दौर शायद अब गुजर गया
तबाही का दौर शायद अब गुजर गया।
वस्ल का दौर लौट आया है फिर से
हिज़्र का दौर शायद अब गुजर गया।
ईमान से भरी दिखती है दुनियाँ अब तो
छल कपट का दौर शायद अब गुजर गया।
वो ज़िंदगी से डरी सहमी सी ज़िंदगी
मौत से मुलाकात का दौर शायद अब गुजर गया।
’सुकून’ से आ जा रहे हैं लोग फिर से
वो दहशत का दौर शायद अब गुजर गया।
फिर भी वक्त के नुमाइंदों पे यकीं कैसे करें
इत्मीनान का दौर शायद अब गुजर गया।-
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मेरे हालात सुनकर तुम मेरा भी बोझ उठाती हो
इतना कब तक सह पाओगी अपनी भी नहीं बताती हो।
हालात तेरे भी कुछ कम नहीं पर तुम गहरी कुछ ज्यादा हो
मैं कह के हल्का हो लेता हूं तुम सुनके सोचती रहती हो।
पी लेती हो मेरे ही जाम से उसी में सुरूर आ जाता है
मैं रात भर करवटें बदलता हूँ मेरा रात में नशा उतर जाता है।
जिसके सहारे दिन गुजर रहे थे वो भी अब मुँह मोड गई
दुनियाँ ने कब का छोड़ा था सकी भी राहों में छोड़ गई।-
ख़स्तगी से बदन की हालत खस्ता हो चली
खैर, इसी के बहाने कुछ फुर्सत तो मिली।
निहाँ ना रहे बदन में कोई ख़स्तगी कभी
लम्बी ख़स्तगी से फुर्सत ही नहीं मिलती।-
लौट रहा हूँ धीरे धीरे ज़िंदगी की ओर
हाँ, अब आने लगा है ज़िंदगी खुशियों का दौर
कुछ घाव दिल पर नहीं शरीर को लगते हैं
ये घाव बड़े होकर भी अच्छे लगते हैं।-
इस ज़िंदगी में बेशक दिल का दर्द तुम हो
ज़िंदगी भर के लिए दिल का मर्ज तुम हो।
खफ़ा होने में गुजारा नामुमकिन ज़िंदगी का
जिंदा हूँ कि जुदाई का दर्द सुने वो तुम हो।
गर मर जाते तुमसे मिले बगैर ठीक ना होता।
जुदा होकर ज़िंदगी से मिलाने वाले तुम हो।
यूं तो दुनियां में कितने ही मरते रहते हैं रोज
पीकर ग़म–ए–जुदाई खबर बनाने वाले तुम हो।
यूं तो वस्ल में ही गुजारी है जिंदगानी हमने
ना हटो पीछे सूखा सज़र बनाने वाले तुम हो।
बिन आग भी जलाया आखिर जीवन भर मुझे
मेरा सुख चैन मेरा जीवन मिटाने वाले तुम हो।
तुम दुनियां से निकले जो मतलब से साथ रहे
’सुकून’ है आग के हवाले, मिटाने वाले तुम हो।-
जब बिखरा मैं सबने देखा
सभ्य किसी को नजर ना आया।
सुकून से रही जब तक ज़िंदगी
सुकून से अपना वजूद गंवाया।
सुकून में सिमटा रहा
सुकून से रहते सुकून लुटाया।
बेचैन जब हुई ज़िंदगी
कुछ चैन खोया सुकून पाया।-
हम क्या बताएं किस्से ज़िंदगी के
हम मौत से भी मिल कर आए हैं।
कहने को तो ज़िंदगी जी रहे हैं
ज़िंदगी से लेकिन दूर बड़े हैं।
रात भर हमें कुछ करते ही नहीं
सारी सारी रात हम जागते रहे हैं।
मेरी तरफदारी तुम भी करो ना
हम तो ज़माने में बदनाम रहे हैं।
लंबा अरसा हुआ खुद से मिले
अब तक खुद से ही शरमाते रहे हैं।
ख़फ़ा ख़फ़ा से रहता है ज़माना
क्या अकेले हम ही गुनाहगार रहे हैं?
आंधियां भी ज़िंदगी में मेरी खूब आई
पूछती गई रेत पर क्या लिखते रहे हैं।
मेरी नज़र में दुनियाँ है अजब मेला
इस मेले से हम बिछुड़ते रहे हैं।
मिला हमसफ़र, सफ़र में चलते चलते
’सुकून’ से कह दिया अच्छे लग रहे हैं।-
सच से रु–ब–रु हुए तो खुद को जाना
सच से रु–ब–रु हुए ज़माना पहचाना।
सच की फ़ितरत ही बदल दी ज़माने ने
झूठ का बोलबाला झूठ का है ज़माना।
सच का दम टूट रहा है बंधी सलाखों में
झूठ ने हद पार की सच बन के लुभाना।
वो जो सफ़ेदपोश खड़ा है काले चश्मे में
आँखों से झलकती झूठ को पड़ा छुपाना।
तुझे मालूम है तेरी आँखों से ही देखता हूँ
’सुकून’ की बात का है तुझे यकीन दिलाना।-
ख़ामोशियों का शोर रोज सुनता रहा हूँ मैं
ज़िंदगी भर ख़ामोशियों से लड़ता रहा हूँ मैं।
किसी मौसम का मिजाज़ कोई बदल डाले
हर बार बस एक सा खामोश बना रहा हूँ मैं।
कभी लब खुले नहीं ज़माने की तकरार में
उम्र भर खुद का ही हमसफ़र बना रहा हूँ मैं।
आशिक़ नहीं तो क्या जज़्बात तो मेरे भी हैं
बस थोड़ा क्या हँसा इल्ज़ाम लिए फिरता हूँ मैं।
ये वक्त है इस वक्त में ग़म–ओ–सुकून सब मिले
बस थोड़ा सा सफर सोचकर चलता रहा हूँ मैं।
अपनी मर्जी का क्या उनके साथ हो लिया
खुद का ’सुकून’ छोड़कर बेचैन ही रहा हूँ मैं।-