हवाओं से इश्क़ करना है फितरत जिसकी
मुकद्दर में हवाओं से उसका ही बैर लिखा है
जिस ओर है मंजिल ठोकरें भी सारी उसी रास्ते
सबक सिखाने का जिंदगी तेरा ये कैसा सलीका है-
स्त्रियां खुद को कितना भी शिक्षित कर लें
उनकी शिक्षा सिमट कर रह जाती हैं
कविताओं में
कहानियों में
या फिर घर के किसी कोने में
पुरुष कितने भी अशिक्षित हों
उनकी अशिक्षा निकल जाती है
दीवारों को चीर कर
समाज कि पहरेदारी का
बेड़ा सर पर उठाए
समाज
पुरुषों की अशिक्षा के तले भी
खुद को व्यवस्थित ही पाता है
लेकिन
स्त्रियों की थोड़ी सी शिक्षा भी
अव्यवस्थित कर देती है
बेढंगे समाज का ढांचा-
अपनी ज़िद अपना झूठ अपने में उलझे लोग
किसी और का सच भी नज़र इन्हें आता नहीं
आते -जाते ,शाम-ओ-स़हर एक झूठ में जीते हैं
इनके मन का आईना क्या इन्हें झुठलाता नहीं?
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लड़कियां देखती हैं
गृहस्थी में उलझी अपनी माॅं का
समर्पण आदर और प्रेम
अपने पिता के प्रति
उस क्षण नहीं देख पाती हैं
उस प्रेम में छिपी
कठोरता
निसंदेह लड़कियां
स्त्री हो जाती हैं
लड़के देख पाते हैं
माॅं के कठोर हृदय में
छुपा वर्षों का संघर्ष
समर्पित आंखों में छिपे अश्रु
जो निसंदेह दिए जाते हैं
पिताओं द्वारा
आश्चर्य है
लड़के फिर भी पिता हो जाते हैं
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उन्हीं राहों से है गुजरना फिर
है बिखरा-बिखरा सा हाल वही
वही उलझनें हैं शिकायतें वही
गुजरे वक्त से फिर है मलाल वही
बेशक ये तारीख़ नई है साल नया है
हैं ज़हन में कैद मगर पुराने ख़याल वही
ज़रा सी बदलाव पर इतना शोर क्यों है
है जवाब अब भी बेतुके, हैं बेतुके सवाल वही
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सच कहते हैं लड़के
उनके कंधों पर जिम्मेरारियां बहुत हैं
जिम्मेदारी उस मां कि
जिसे जिम्मेदार बनाने में पीछे रह गया
परिवार उनका
जिम्मेदारी उस पिता कि
जिसने अपने संघर्ष के दिनों में भी
अपनी पत्नी से साथ नहीं,
मांगी बस सहानुभूति
जिम्मेदारी उस बहन कि
जिसके लिए खरीदा जाना है
एक जिम्मेदार लड़का
ज़िम्मेदारी उस जीवनसंगिनी कि
जिसे जिम्मेदार बनाने में
असफल रहा पूरा समाज
और अंत में दो जिम्मेदारियां
अपने बच्चों के प्रति
पहली ज़िम्मेदारी
बेटे को ज़िम्मेदार लड़का बनाना
और दूसरी जिम्मेदारी
बेटी को जिम्मेदार लड़के से व्याहना
सचमूच लड़कों के हिस्से जिम्मेदारियां बहुत हैं।
सुजाता शर्मा
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हर युग में रची जायेगी एक ना एक महाभारत नाम तुम्हारे
हर युग में अश्रु और कष्ट तुम्हारे युद्ध के कारण बताये जायेंगे
हर युग में बहलाई जाओगी तुम न्याय के इन्हीं चुटकुलों से
एहसान मानोगी समाज का जब शस्त्र तुम्हारे नाम उठाए जायेंगे
आज उतरे हैं जो सड़कों पर तुम्हारे सम्मान का बेड़ा उठाए
कल यही सभ्य लोग मां बहन की गालियों पर उतर आयेंगे
जिस चेहरे से हटा नहीं मुखौटा अब तक इस दौर में है राम वही
सौ रावण के हाथों इस बार फिर दो -चार रावण जलाये जायेंगे
कैसे पहचान पाओगी याज्ञसेनी इस युग में दुर्योधन दुशासन को
भीड़ में खड़े हैवान भी पहन मुखौटा गीत स्त्री सुरक्षा के ही तो गायेंगे
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मिला था मुझे वो मेरे ही आंगन घात लगाए
तुम्हें किस गली मिले तय उसका पता नहीं
ऊपर -ऊपर से धरा है उसने रूप मर्दाना
उसकी आंखों में मगर शर्म और वफ़ा नहीं
किस तराजू से तोलते हो तुम हैवानियत को
तुम्हारी नज़रों में क्या अब भी ये बर्बरता नहीं
कभी जाती कभी धर्म अब पेशे पर अटके हो
अवसर है अब भी तुम्हारे लिए ये आपदा नहीं ?-
लाखों ढंग के हैं दरख़्त इस जहां में
कभी अचल रहे तो कभी बिखर गये
कभी कांटे चुभे शीतल छांव में इनकी
कभी नीम बनकर सारे ज़ख्म भर गये
कुछ टूटकर भी जग के काम आ गये
कुछ अपने बाग से बेवक्त ही उजड़ गये
किसी की छांव तले सारा ज़माना सोया
और कुछ छांव से अपनी ही मुकर गये
जिनके हिस्से आए कांटो भरे दरख़्त मगर
छांव की तमन्ना लिये वो मुसाफिर गुज़र गये
सुजाता शर्मा
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तुम आँखें बंद कर लो अपनी
ज़्यादा ग़लत कुछ नहीं होगा
जो होता आया है सदियों से
उससे अलग कुछ नहीं होगा
तुम पूजते ही तो हो हैवानों को
अब इसमें तुम्हारा क्या दोष है
सभ्य होने के सामाजिक नशे में हो
सही और ग़लत का तुम्हें क्या होश है-