भक्ति में अनन्यता-
अन्याश्रयाणां त्यागोSनन्यता।।१०।।
अपने इष्टसे( भिन्न) दूसरे सब आश्रयों
के त्याग का नाम अनन्यता है।।
प्रह्लाद ने सब का त्याग किया बस हरि नाम
नही छोड़ा भगवान को निराकार से साकार
और नर से नरसिंह बनना पड़ा अपने आश्रितों
की संभार वे प्रभु स्वयं करते है फिर अन्य आश्रय
से क्या लाभ...!
ज्ञान में अनन्यता है एक अद्वितीय परमात्मा का
ही अनुभव।दूसरी कोई वस्तु सत्ता है ही नहीं।
देश ,काल परस्थिति, सब बदलती है पर परमात्मा नही
आत्मा और परमात्मा एक है ये ज्ञानी की अनन्यता का
स्वरूप है।
भक्ति की अनन्यता है, हरि से जोरि सबन सों तोड़ी
कर्माश्रय के दो प्रकार है। बहिरंग और अंतरंग।
बाह्य कार्य व्यापारादि बहिरंग कर्म हैं
इसका आश्रय बहिरंग कर्माआश्रय है।
योग ,जप,तप, आदि अंतरंग कर्म है
और इसका आश्रय अंतरंग कर्माश्रय है।
भक्त अपने कर्माश्रय से भगवान को बस करने का नही सोचता ।
क्यों कि भगवान मनुष्य के किसी कर्म मूल्य से नही
खरीदे जा सकते।
भक्त तो अमृत्स्वरूप हो जाता है। उसे संसार से विषयों से
बस उतना ही प्रयोजन रह जाता है।जितना नदी मिल जाने
से किसी बावड़ी कुआँ में मनुष्य का ।।
बने तो रघुवर ते बने बिगड़े तो भर पूर।
तुलसी औरनि ते बने वा बनिबेमें धूर।।
#बाँवरा"हृदय" #
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29 APR 2019 AT 21:18