12 NOV 2017 AT 21:54

'किस किस को याद कीजिए किस किस को रोइये,
आराम बड़ी चीज है मुँह ढँक के सोइए’

आँखें बन्द कर सोचने लगा,
‘गुलमर्ग में मेरे साथी छूटे थे और जम्मू में मैं, हिसाब बराबर हो गया. मुझे मेरे गुनाहों की सज़ा बड़ी ही जल्दी मिल गई. कहते हैं, कलयुग में हाथों हाथ मिलता है’

पर क्या यह बराबरी का सौदा था. गुलमर्ग में छूटे हुए साथी जमात में थे. एक दूसरे का सहारा. आपसी सहयोग से निर्णय लेने में सक्षम. फिर सभी स्वस्थ थे और तन्दुरुस्त भी. और मैं ?

मैं निहायत तन्हा, अकेला, अनजान शहर, बीमार, जाड़े की कड़कड़ाती रात. चन्द रुपए जिसमें किसी भी होटल में एक रात भी रुक नहीं सकता और एक दो दवाइयों के टैबलेट के सिवा पास में कुछ भी नहीं. इसके अतिरिक्त मुझे अविलम्ब ही चिकित्सा की जरूरत थी जो रात के साढ़े नौ बजे बिना किसी व्यक्ति के सहयोग के किसी भी हालत में अकेले सम्भव न था.

- सुधांशुशेखर