अतीत की परछाई
जिस चौराहे मे लोग
एक दूसरे से मिलने आते थे
वहाँ आजकल लोग
एक दूसरे को छोड़ने आते हैं
बस बहुत कम समय के लिए रुकती है
और लोग वहाँ देर से ठहरना चाहते हैं
लोग झिझकते है व्यक्त करने मे
जब तक अन्तर मन की बात निकलती हैं
तब तक बस निकल जाती है
बात से ज्यादा भाव होती है
यादों की एक छाव होती है
उस ठेहराव की धूप में
उम्मीद की जाती है
मिलने का
दिन महीने साल निकल जातें हैं
किसी रेत की तरह
दुबारा कभी मिल भी जाए
तो अतित की रोशनी से
टकराते है उनसे नहीं
बारिश की बूँदें टपकती है
थोड़े वे भी भीग जाते हैं
हवा की झोंक से निकलते हैं
आसमान मे कालि बादल छा जाती हैं
Sudesh Mahto
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