दरवाजे मनुष्य के विकास के परिणाम हैं
जैसे-जैसे मनुष्य विकसित होता है
दरवाजे बनाता जाता है
सिर्फ घर में ही नहीं लगाए जाते दरवाजे
बल्कि,देश,धर्म,समाज,आंख, कान,विवेक
और चेतना, सब पर जङ दिए जाते हैं
बहुत चालाक होते हैं ये दरवाजे
चतुर कर्मचारी की तरह
जो दबा लेते हैं उन दस्तावेजों को
जिनमे उन्हें बख़्शीश नहीं मिलती
वैसे ही, दरवाजे दबा लेते अपने पीठ पर
पड़ने वाले, उन दस्तकों को
जो इनके पैर नहीं चूमते
तुम्हें दरवाजों पर विश्वास है ना!
इसलिए अंदर से हर दस्तक हमला प्रतीत होगा
क्यूंकि हर दस्तक दरवाजों के पैर नहीं चूमते-
I will never request u to follow me ...
Ur word represents ur ... read more
कभी कभी हम किसी को ढूंढते हुए
इतनी दूर निकल जाते हैं
जहां खत्म हो जाती हैं
इंसानी बस्तियां
जहां सूख जाते हैं बादल
न आती है रौशनी
बंद कर देते हैं काम करना
सारे दिशायंत्र
और फिर न तो लौटने का मार्ग होता
न ही आकांक्षा
क्यूंकि अगर हम लौट भी आयें
तो पूरी तरह खर्च हो चुके होते हैं
सड़कों से जायदा यात्राएं
बंद कमरों में तय की गईं
सड़कें तो अभी बहुत छोटी हैं-
जिनको लगता है कि
बस सन्यास सही है ।
ब्रह्म सत्य है,जग मिथ्या
विश्वास सही है ।।
तब तो कृष्ण के
सारे रास गलत हैं जग में ।
तब तो जग में
राम का बस वनवास सही है ।।-
कलियों पे बारिश की कुछ बूंद पड़े
और वो फूल बन गईं
तुम फूलोँ से वही बूंद मांगते हो
वो नहीं देंगे
वो देंगे तुम्हें, खुशबु ...
हाँ...तुम चाहो तो
बूँदों को कलियों तक पहुंचने से
रोक जरूर सकते हो...
मगर मेरा दावा है
तुम कभी बारिश की बूँदों से
खुशबु नहीं निकाल सकते-
तुम्हारे कदमों की आहट
दुनियां का सबसे सुरीला संगीत है
मैं जब कभी
ख्यालों में इसे सुनता हूं
ज़ेहन में
इतवार सा सुकून फैल जाता है-
सर्दी की धूप सी तुम्हारी नज़र
जब पत्थरों पे पड़े
तो वो खुशबूदार हो जाए
हवाएं पैरों में घुँघरू डाल कर
सालसा करने लगे
शून्यता में विलीन मन में
दुर्गोत्सव के मेले सजने लगे
और धड़कन बच्चों की तरह
कूद-फांद करने लगे
तुम चाहो तो
अपनी आंखों पर
चश्में के पर्दे डाल कर
इन घटनाओं को कम कर सकते हो
मैं पत्थर, हवा,उत्सव या बच्चा
नहीं बनना चाहता
मुझे ये सर्दी पसंद है-
कभी अन्य की पीड़ा से
निर्मित मुस्कान नहीं पाला ।
इस चार पृष्ठ के जीवन पर
जिसने भी स्याही डाला है ।
मुझको इसकी परवाह नहीं
वह क्या करवाने वाला है ।।
मैं खुद में कोई शब्द नहीं
न मेरा कोई अर्थ यहां ।
जो दृश्य और दृष्टा पाए
सबको पाया मैं व्यर्थ यहां ।।
खुद के मन में इस से ज्यादा
कोई अभिमान नहीं पाला ।
कभी अन्य की पीड़ा से निर्मित
मुस्कान नहीं पाला ।।
-
एक दिन
ऐसा होगा
जब ये बाजार उठने लगेगा
दिए झिलमिला रहे होंगे
सूख चुके होंगे उनके ईंधन
और बत्तियों का आखिरी सिरा
औंधे मुँह लटक रहा होगा
मैं तब मिला रहा होऊँगा
अपना हिसाब
तमाम आय-व्यय और नफा-नुक़सान
और फिर मैं अपनी झोली समेट कर
यहीं कहीं छोड़ दूँगा
और निकल जाऊँगा इक अन्तहीन मार्ग पे
जहां कोई किसी को नहीं पहचानता
न ही वहाँ ऐसे बाजार लगते हैं
न ही भावनाओं के ऐसे कोई खिलौने बिकते हैं
मैं यहां से ले जाना चाहता हूं
सिर्फ तुम्हारे नाम का खाता
ताकि गलती से भी
फिर कभी इस बाजार मे
मेरे पांव न पड़े-
दिल नहीं लगता किसी से
और लगाना भी नहीं है ।।
यह नहीं की अब कोई सावन न मुझको रास आते ।
हाँ ,परंतु सच कहूँ तो, अब न लब पर प्यास आते ।।
कौन कब तक साथ देगा, जबतलक मैं दिल को भाऊं ।
मैं नहीं वह बांसुरी जो बस सुरीला राग गाऊँ ।।
मैं गलत हूं या सही
यह साक्ष्य दिखलाना नहीं है ।
दिल नहीं लगता किसी से
और लगाना भी नहीं है ।।
मैं पथिक हूं,जिसको पथ ने खुद कहा कि,"पग हटाओ" ।
मैं वो पंछी जिसको उपवन ने कहा अन्यत्र गाओ ।।
कर समर्पित शीश अपना हर समर मैं हार आया ।
यह नहीं मन से सबल हूं बल्कि मन को मार आया ।।
अब हृदय की ग्रंथियों को
और उलझाना नहीं है ।
दिल नहीं लगता किसी से
और लगाना भी नहीं है ।।
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है हृदय में हर्ष पर, मेरे नयन में जल है माँ
और स्वागत में तेरे पग- पग मेरा करतल है माँ
सच कहूँ तो अब मुझे जग की कोई परवाह नहीं
क्यूंकि मेरे शीश पर तेरा जो आंचल है माँ-