सत्येन्द्र कुमार   (सत्येन्द्र)
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एक मृग, कस्तूरी की खोज में
Joined 15 December 2017


एक मृग, कस्तूरी की खोज में
Joined 15 December 2017

बाद अरसे लौटा हूँ शहर में, शहर की हालात बताई जाए
हमनें बिन उनके गुज़ारी कैसे, वो लंबी रात बताई जाए।।

पसंद है उन्हें आसमानों की परवाज़, और इल्म चाँद-तारों की
हमें आती है बस बात लिखने, तो चलो बात बताई जाए।।

गए थे शहर उनके, हाँ ख़्वाबों में ही सही
होते-होते रह गई अधूरी, वो मुलाक़ात बताई जाए।।

मत पूछना 'सत्य' कि अंजाम-ए-इश्क़ क्या होता है
कुछ ख़ुशनुमा ग़र सुनना हो, तो शुरुआत बताई जाए।।

ख़त्म हुई जंग दुश्मनों से, फ़तेह हुई हमारी थी
हारा कैसे उन सफ़्फ़ाक निगाहों से, मेरी वो मात बताई जाए।।

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हो तपती धूप, या कि
स्याह अँधेरी रात हो

ढूंढ लेंगे मंज़िल हम दोनों
पहले सफ़र कि तो शुरुआत हो।।

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तुम प्रेम हो,
प्रेम ईश्वर है,
ईश्वर तुम हो!!

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है ये तस्वीर अधूरी अभी
जो बिंदी लगाओ
तो मुकम्मल हो!

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प्रेम में "तुम मेरी हो" नहीं कहा जाना चाहिए
हाँ, "मैं तुम्हारा हूँ" कहा जा सकता है!

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ख्वाहिश तो खुलें आसमान में उड़ने की थी,
पर जरुरत की बेड़ियों ने कभी चलने न दिया।

खुशियों की दावत तो हम भी लगाते,
पर खाली जेब ने शाम ढलने न दिया।।

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वो दुर्गा है वो काली है, वही अवतार भवानी है
हर रण में उसने विजय पाया है, जब-जब उसने ठानी है।

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कविता दिवस

(अनुशीर्षक पढ़े)

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मुझे डर इस बात का नहीं....
(अनुशीर्षक पढ़े)

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दिल हारकर चला था उसके दिल को जीतने

नतीजा.....
दर्द भी अब मुझे किश्तों में मिलता है।।।

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