धरा को ही देखा है सदा,
निहारती अम्बर को एकटक
प्रकट करती हर भाव खुद में ही,
प्रेम, प्रतीक्षा, तपिश ईर्ष्या की,
घटाओं को अम्बर संग देख।
प्रेम देख उस अम्बर का भी,
समेटे हर भाव खुद में ही,
बूंदों से सन्देश भेजता।
ग़र है समझ निःस्वार्थ प्रेम की,
दूर क्षितिज में देख तू कभी,
ये अम्बर ही तो झुका है कहीं।-
धरा को ही देखा है सदा
निहारती अम्बर को एकटक
खुद में ही हर भाव समेटे
प्रेम, प्रतीक्षा और तपिश
ग़र है समझ तुझमे प्रेम की भी
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कैसा लगे जो कहे कोई सबसे अपना
और हो जाए वो सारी दुनिया का
बस ना हो अपना-
पिरोया है मैने ही
संसार के सारे बंधनों को
पृथक हूँ संसारिक कायदों से
और बंधनों से धर्म -जाति के
अंतःकरण में व्याप्त हूँ हर जीव के
प्राणी को ईश्वर का वरदान हूँ मैं
प्रेम हूँ मैं
जीवन का आधार हूँ मैं-
निखर गयी सुंदरता उसकी
चाँद पर दाग़ होने से
बढ़ गयी रकम दहेज़ की
जब वही दाग़ था
उस सुन्दर मुखरे पर-
कितना सुन्दर होता ये संसार
गर हो जाता मनुष्य
जाति -धर्म की बेड़ियों से परे
आस्था होती बस उस परम शक्ति में
जो व्याप्त है सृष्टि के कण -कण में
कितनी खुशहाल होती धरती
गर मानते सब एक ही धर्म
इंसानियत का
गर हो जाते बस इंसान सभी-
सदा नयनों ने देखा है बस चित्र ही
कभी यथार्थ दरस दे जाओ ना कान्हा
अपने सलोने रूप से सबके मन हरे है तुमने
कभी उस रूप से भेंट भी करा जाओ ना कान्हा
वो मुरली जिसपे थिरकतीं है उँगलियाँ तुम्हारी
कभी उसकी मधुर धुन सुना जाओ ना कान्हा
वह मयूर पँख जो सदा सजता मुकुट पर तुम्हारे
कभी उस पँख से स्पर्श मात्र ही कर जाओ ना कान्हा
बैठी हूँ बाट -जोहती नदिया तीरे, आतुर नयन से
कभी इन्हे दरस से कृतार्थ कर जाओ ना कान्हा
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कितनी आसान होती है जिंदगी उनलोगो की
बना जाते है जो किसी को भी अपने क्रोध के शिकार-
सदा नयनों ने देखा है बस इस चित्र को
कभी यथार्थ दरस दिखा जाओ ना कान्हा....
इन नयनों पर तरस दिखा जाओ ना कान्हा...
To be continued...-
अस्त होते सूर्य की वो, अतिसुंदर लालिमा
प्रतिबिम्ब से जिसके, सरोवर भी पुलकित हुआ।
घर लौटते पंछियों की, मधुर सी वो चहचहाहट
माटी की वो सौंधी खुशबु, जिसपे मन मोहित हुआ।
पगडंडियों से लौटते, बच्चों की वो खिलखिलाहट
मानो ग्वाल बालों संग कान्हा फिर अवतरित हुआ।
अतुलनीय है गांव की मनोरम सी ये सांझ बेला
प्रज्वलित होते दीप के साथ, ह्रदय भी प्रफुल्लित हुआ।-