मौसम तो हर साल बदलते
दिन औ' रात भी घटते बढ़ते
क्या बदलाव अनूठा देखा है?
क्या माँ को बदलते देखा है?
चाँद को ढलते सबने देखा
प्रकृति का हर खेल अनोखा
क्या वात्सल्य अनोखा देखा है?
क्या माँ को बदलते देखा है?
कौशल्या को क्या तुमने भी
कैकेयी बनते देखा है?
बातों को उलझते देखा है ?
क्या माँ को बदलते देखा है?
बचपन वाली माँ मिल जाए
वही स्नेह खुलकर बरसाए।
क्या ऐसा मौसम देखा है ?
क्या माँ को बदलते देखा है?
इस कलयुग में सब सम्भव है,
हाँ, माँ को भी बदलते देखा है।
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**Writer
**Poetess≤
**Numerologist
**NLP Trainer
**Anchor
**Motivational speaker
**Nat... read more
अंतस को छू लेने वाली,
भावों में बह जाने वाली।
संस्कृति को रखे समेटे,
रचना में रच जाने वाली।
कविता ,छंद ,चौपाई ,सोरठा,
दोहों में बस जाने वाली।
पिरो-पिरो शब्दों के मनके,
समृद्ध साहित्य बनाने वाली।
कोटि- कोटि करबद्ध नमन
हिंदी भाषा जन मन वाली।
सरिता शौक़ीन
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रिद्धि सिद्धि ,सेहत का वरदान मिले,
घर ,बाहरऔर पग-पग पर सम्मान मिले।
सुख,समृद्धि ,यश,संतोष क़दम चूमे,
नये वर्ष पर खुशियों की बरसात मिले।
आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं🌺🌺🙏🙏
सरिता शौक़ीन
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गाँव छोड़ शहर में रहना ,इतना भीआसान नहीं है।
वृद्धों की मजबूरी का हमको कुछ भी भान नहीं है।
ना हुक्के,न ताश की महफ़िल ,कोने में आतिशदान नहीं है।
गाँव छोड़ शहर में आना ,इतना भी आसान नहीं है।
राम राम और श्याम श्याम जी,शहरों में ये आम नहीं है।
चाचा ,ताऊ ,भाइयों वाला,आदर , ओ' सम्मान नहीं है।
वृद्धों की मजबूरी का, हमको कुछ भी ध्यान नहीं है।
बचपन और जवानी वाली,प्यारी गलियों का साथ नहीं है।
आग जलाकर हाथ तापना,शहरों का रिवाज़ नहीं है।
वृद्धों की मजबूरी का,हमको कुछ भी भान नहीं है।
हलवा ,पूरी ,खीर ,चूरमा,,वाले ,यहाँ त्यौहार नहीं है।
पिज़्ज़ा बर्गर वाली पीढ़ी,गाँव -सा खान पान नहीं है।
वृद्धों की मजबूरी का,हमको कुछ भी भान नहीं है।
चादर बिछा किसी पार्क में,नभ को एकटक ताक रहे हैं।
ज़िंदा तो रह लेते हैं पर,इस जीने में जान नहीं।है।
वृद्धों की मजबूरी का,हमको कुछ भी भान नहीं है।
गाँव छोड़ शहर में रहना ,इतना भी आसान नहीं है।
सरिता शौक़ीन
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कहता नहीं हूँ कुछ भी पर कहना चाहता हूँ।
हाँ पुरुष हूँ मैं भी खुलकर जीना चाहता हूँ।
जो दर्द छुपे हैं दिल में वो कहना चाहता हूँ।
देता नहीं इजाज़त पुरुषत्व ऐसी मुझको ,लेकिन….
बच्चे की भाँति मैं भी खुलकर रोना चाहता हूँ।
यूँ तो भरी हैं अगनित ऊँची उड़ानें मैंने,
बच्चों के आगे लेकिन हार जाना चाहता हूँ।
कहता नहीं हूँ कुछ भी पर कहना चाहता हूँ ।
जो दिल हार जाए मुझ पर उस पर...
सब लुटाना चाहता हूँ।
हाँ पुरुष हूँ , प्रेम पाना चाहता हूँ।
प्रेम की आँच में, मैं भी पिघलना चाहता हूँ।
सरिता शौक़ीन
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दे दी रिहाई रूह की कैद से जा भर ले परवाज़
मगर लौट आना छू कर बुलंदियां गर कमी खले
सरिता शौक़ीन-
दे दी रिहाई रूह की कैद से जा भर ले परवाज़
मगर लौट आना छू कर बुलंदियां गर कमी खले
सरिता शौक़ीन-
जब कोई पुरुष पिता की भाँति
सहलाता है ,स्त्री के मन में बसे सपनों को।
भाई की तरह करता है हिफाज़त उसके मान सम्मान की।
प्रेमी की भाँति छू लेता है रूह को।
दोस्त की तरह खोल कर रख देता है,मन मे छुपे दर्द को ।
वो पुरुष पा लेता है स्त्री का अनन्त प्रेम,
अटूट विश्वास, समर्पण व सम्मान….
सरिता शौक़ीन
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किस्से जुदाई के बहुत अजीब होते हैं।
दोस्त जुदा होकर भी दिल के क़रीब होते हैं-
जुदा होकर भी जुदा नहीं होते दोस्त
आ जाते हैं टहलने ख्यालों में अक्सर-