कुछ आबाद से हैं,कुछ बर्बाद से हैं
ज़िन्दगी की इस महफ़िल मै एक मेहमान से हैं।
थोड़े मोजूद,थोड़े गुमनाम से हैं
मकड़ी की इस जाल मै कुछ अंजान से हैं।
कभी उजाले,कभी अंधेरे में हैं
जाने थोड़े दिनों से अकेले में हैं।
कभी दिन के धूप,कभी रात की चांदनी में हैं
दूर कहीं हम अपनी मन्न की मनमानी मै हैं।
कहीं अपने अस्तित्व,कहीं अपने आस्तियों मै हैं
बस्ती से दूर हम कहीं मेखाने की तकदीरों मै हैं।
कभी जिस्म की भूख,कभी रूह के सुख मै हैं
लापता कहीं उन धुंधली तस्वीरों मै हैं।
एक महफ़िल से अंजान,दूसरे मै बेगाने से हैं
शायद इसीलिए हम सरफिरे दीवानों मै हैं।
कभी खिलती हुई हसी,कभी बेहती हुई आसुओं मै हैं
खफा से और कभी मायुष सवालों मै हैं।
ना नाचिज़ों की बस्ती और ना ही हीरे के ख़ान मै हैं
खेल जो रचा है प्रभु ने,कहीं उस फरमान मै हैं।
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