हाथों में रंग हज़ार, मन में उमंग अपार। हर उम्र दिखलाती अपना अलग उपहार। कोमल हाथ माँ के समेटे स्नेह अपार। बहती नन्हें हाथों से चंचलता की धार। थरथराते बुजुर्ग हाथ आशीष देते बारंबार। रंग भरे हाथ गृहणी के देखो बाँधते रिश्ते हज़ार। कोमल हाथ प्रेयसी के बिखरेते मुस्कान संग प्यार। देखो ना! दिखलाती हर उम्र अपना अलग ही उपहार। पर जो कभी ना कम होगा वह है रिश्तों में छिपा प्यार!
निराशा की आस मैं, तृषित की प्यास मैं। कमज़ोरों का विश्वास मैं, किसी चाह की काश मैं। सृजक मैं, सकल मैं, पुरुष का अदृश्य बल मैं। गृहस्थी की हूँ जल मैं, नन्हें नागरिकों का कल मैं। हूँ किसी की चाह मैं, तो किसी की राह मैं। जीवन का प्रवाह मैं, स्नेह लुटाती अथाह मैं। सम्पूर्ण जग की आवश्यकता ख़ास मैं, हूँ फिर क्यों अपने ही जीवन से निराश मैं?
मीठी, मधुर मकर संक्रन्ति आई है। संग अपने खुशियाँ अपार लाई है। मिठास व उमंगों का अनूठा त्योहार। है देता हर रीत में ज्ञान का भंडार। उड़ती पतंग सिखाती नभ छूना जीवन में। कटकर जो उड़ती दोबारा वह गगन में। देती सीख कि हारना ना तुम कभी जीवन में। समेट टूटे हौसलों को करना विचरण पुनः पवन में। चावल, तिल, गुड़ के अनोखे प्रसाद में, सिखलाती कि मधुरता व मुस्कान आवश्यक है शुरुआत में। सिखाती सहेजना रिश्तों को मीठे लड्डूओं के निर्माण द्वारा। कि मिठास व नरमता से देना रिश्तों को सहारा। हैं बंधते जैसे मीठे लड्डूओं में तिल गुड़ संग। रिश्तों के कोमल बंधन को सहेजने का भी बस वही है ढंग। मिठास, ज्ञान व प्रेम से परिपूर्ण प्यारी मकर संक्रन्ति आई है। जिसने हमें जीवन में अनेकों बातें सीखलाई है। देखो मधुर संक्रन्ति आई है!
अतीत कि खिड़की पर झिलमिलाते हैं आज भी वह मंज़र जिनमें साथ हुआ करते थे हम। सुनाई देती है गूँज एक काश की। कि काश! हम तुम कभी बिछड़े ही ना होते! काश! मात्र एक बार चल पड़े समय विपरीत गति में। खिड़कियाँ अतीत की आज भी बहुत सताती हैं मुझे! कहती हैं वह बारंबार मुझसे कि काश! लौट पाती तुम मुझमें आज भी। गूँजता ही रहता है अंतर्मन में मेरे बस यही एक काश!
वो भी एक वक़्त था जब कहलाते थे 'राजसी' हम। अब तो पद हमारे ले लिए तकनीकों ने! नवाज़ा था कभी ख़िताब से हमें प्यार के डाकिए के। पर अब तो मिट गया शायद वजूद ही डाकिए का ज़माने से। पहुंचते हैं ख़त अब तकनीकों से, नहीं रही ज़रूरत अब प्यार के डाकियों की ज़माने को!
हाँ! मैं जानता हूँ कि तुम्हें प्रेम नहीं मुझसे! इसलिए मुझे मात्र मेरे प्रेम में लुप्त हो जाने दो। तुम्हारे यह लोचन दर्पण हैं मेरे प्रेम के भूतकाल का, तुम इनमें मुझे मेरे प्रेम समेत समाने दो! इनमें दिखता है मुझे आज भी वह मंज़र सुनहरा जब मैं तुमसे पहली बार टकराया था। ज़मीं पर बिखरी उन किताबों सँग तुमने मेरी मंजुल भावनाओं को भी तो छलकाया था। तुम मात्र मुझे उन्हीं सुनहरे मंज़रों में लुप्त हो जाने दो। इन लोचनों द्वारा मुझे मेरे अपूर्ण प्रेम में संतुष्ट हो जाने दो। मुझे इन लोचनों में लुप्त हो जाने दो!
तुम संग हर सुबह सुहानी लगती है, रक्तिमा रवि की नव वधू-सी झलकी है। सखी बयार शर्माती इठलाती सी चलती है, पंछीयों के मुख पर भी प्रीत धुन सजती है। गुनगुनी धूप भी स्वर्णाचल सी सुहानी लगती है, भावनाएं सरिता-सी लजाते गिरती-चढ़ती हैं। धड़कन उर की भाँति बयार-सी तीव्र चलती है, लोचनों में क्षण-क्षण तस्वीर तुम्हारी झलकती है। अनेकों वार्ताएँ इन अधरों पर लजाती ठहरती हैं, अलावा इस अद्भुत अहसास के हर बात अनजानी लगती है। जाने क्यों तुम संग हर सुबह सुहानी लगती है!