सृष्टि स्नेही चौहान  
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Joined 28 October 2020


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शीर्षक – "काग संग राम"

खेलें कागा संग मे चंचल रघुनंदन,
भागत कागा संग राघव सभी अंगन।
जै छुअत कागा के तेहिं प्रभु मुस्काई,
अरु हाथ ना आवत तै नयन नीर बहाई।
तीनों लोकन के जै हरि खेल खिलावै,
ओहको एक खग खेल संग उलझावै।

थामे रोटी पाणि में प्रभु कागा के खिंझाई,
अरु डाल रोटी मुख में मंद-मंद मुस्काई।
रोटी जै राम की कागा ने छीन लियो,
राम के नयन संग प्रपात फूटी पड़ो।
देख दृश्य सोचत काग है इहि पालनहारी,
जैको रोटी समक्ष है नहीं कोई दुख भारी।

(शेष अनुशीर्षक में पढ़ें)

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खो दिया भारत ने चलचित्र का 'भारत',
हुई विलीन भारत की अनूठी 'अमानत'।
नापी जिसने 'पूरब और पश्चिम' दिशाएँ,
दिखाई झलक कि कैसे "अपने हुए पराए।
'गुमनाम' हस्ती से बनाई अनूठी 'पहचान',
सिखाया कि करो 'उपकार' व 'बलिदान'।
बन 'सन्यासी' दिखाया 'कलयुग और रामायण',
बने प्रेम में 'पत्थर के सनम' तो कभी 'साजन'।
दिखाया 'क्रांति' और 'शहीद' सा रूप अनूठा,
सजाई 'फूलों की सेज' और 'सावन की घटा'।
रहेगा 'हिमालय की गोद में' सा ऊँचा उनका स्थान,
फैलाएंगे हमेशा प्रकाश 'पूनम की रात' सा बन 'चाँद'।
ऐसे 'बेदाग' 'आदमी' रहेंगे हमेशा 'यादगार',
ले 'सहारा' यादों का करेगा 'शोर' उनका हर किरदार।
रहेंगे हमेशा वह सभी 'देशवासी' के मन में,
हृदय से उन्हें बारंबार कोटि-कोटि नमन है!

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हाय! ये रूप तेरा मस्ताना,
देख बने हर कोई दीवाना।
क्या रंग, क्या ढंग, क्या अंग,
लगे तू कुदरत का नज़राना।
ऐ मेरी हमदम कुर्सी! है पसंद
मुझे तुझ पर आराम फरमाना।
सुन कविता के पाठक अनजाना!
समझ गलत तुम ना शर्माना।
बस कर माफ़ मुझे थोड़ा मुस्कुराना,
है जो आज अप्रैल फूल का ज़माना।

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कलम महादेवी की हो
ज्यों नभ की "निहार"।
पर चमक "रश्मि" सा
चमका साहित्य संसार।
लगी "संध्यागीत" सी
एक-एक शब्द झंकार।
बने कागद चारु "पल्लव" से
समेट अनूठे शब्द आकार।
बसे "अग्निरेखा" से पाठक की
स्मृति में एक-एक शब्द आधार।
नव लेखक हेतु कृतियाँ उनकी हैं
"हिमालय" सी ऊँची व प्रेरक विचार।
साहित्य नभ की इस अनूठी
"तारा" को करे उर नमन बारंबार!

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मान कंठहार सूली को
हुए वीर तीन कुर्बान।
थे खड़े समक्ष मृत्यु के
लिए अनूठी मुस्कान।
लड़े आज़ादी को अंतिम
साँस तक सीना तान।
मिले कहाँ ऐसा देश प्रेम,
समर्पण व अनूठी शान।
कर जिसे स्मृत हो क्षण
क्षण रुदित सभी आनन।
करे उर उन वीर शहीदों को
बारंबार श्रद्धांजलि अर्पण!

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सुनो समस्त प्रांत, मनुज व संसार!
कहा सदैव तुमने मुझे असभ्य बिहार।
तो देखो बिहार की सभ्यता का आकार,
भाषाएँ यहाँ की छलकाती मधु-धार।
हूँ मैं नालंदा का विशाल ज्ञान-भंडार,
मैं ही हूँ गया, बुद्ध के ज्ञान का आधार।
गोलघर पाटलिपुत्र का समेटे शांति अपार,
प्रवाह रही गंगा, सरयु, फल्गु सी पुनीत धार।
हूँ एकल मैं पुनीत छठी मैया का संसार,
मैं शारदा सिन्हा के लोकगीतों का सार।
हूँ समेटे मैं आम्रपाली की चारुता अपार,
मैं ही सीतामढ़ी, सिया जन्म का आधार।
मैं दिनकर की रचना के वीर-रस की धार,
विद्यापति की भक्ति का भी मैं ही आधार।
शून्य अन्वेक्षक आर्यभट्ट की जन्मभूमि बिहार,
हूँ मैं महावीर के उपदेशों को सहेजे बिहार।
बना बापू ही सत्याग्रह का भी मैं ही आधार,
राजेंद्र प्रसाद, जयप्रकाश सा ऐतिहासिक संसार।
हूँ मैं ही अशोक स्तंभ के शेर की दहाड़,
मैं हठी मांझी! करे जो प्रेम में पर्वत-प्रहार।
समेटूँ मिथिला चित्रकला संग भी प्रेम अपार,
हूँ फिरंगियों के लिए कुंवर सिंह की ललकार।
मैं चन्द्रगुप्त, बिंबिसार, शेरशाह की तलवार,
हूँ बिहार मैं लिट्टी-चोखे सा स्वाद भी अपार।
हूँ नहीं मैं प्रांत साधारण, ना ही असभ्य बिहार,
मैं भारत मुकुट स्वर्णिम, हूँ गौरवान्वित बिहार!

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शीर्षक – "जल-पुकार"

गूँज रही देखो ध्वनि धारा में कल-कल,
सुनो तो कहे क्या भला यूँ शोर मचा जल!

जल कहे, किया व्यर्थ खपत मुझे पल-पल,
की ना कद्र कभी तुमने देख अथाह जल।

व किया अनुभव जब कि हो रहा लुप्त जल,
जल-संचय, जल-संचय कह किया कोलाहल।

है शेष अब तो सरिताओं में मात्र अश्रु-जल,
पर रहे निचोड़ उसे भी तुम बन कठोर उपल।

ओ मानवों! हैं शेष अभी भी सुधार के चंद पल,
कर वास्तव में जल संचय, करो सुरक्षित कल।

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एक स्त्री वह
अनूठी पुस्तक है
जिसे पूर्ण पढ़ पाना
असंभव है!

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शीर्षक – "कविता-जन्म"

देखो! फूटा विषयांकुर एक
कविता का कवि के मन में।
हो चला व्यस्त मन तब
विचारों के गहन मंथन में।

भटका वह कई क्षणों तक
कल्पना नगरी के कण-कण में।
तलाशी प्रेरणा काल्पनिक झील,
इमारत, झोपड़ी, प्राणी व वन में।

चुने तत्पश्चात चंद शब्द-सुमन
उसने मन के मोहक उपवन से।
बिंधी एक पंक्ति सुंदर भाँति
माल्य-सी चंद शब्द-सुमन से।

समेट फिर पंक्तियों को रेशे-रेशे
सा भाँति पट के बुना एक छंद में।
कर अलंकृत तब तख्ती छंदों की
गढ़ी काव्य-सीढ़ी साहित्य प्रांगण में।

डाले आभूषण छंद, रस, अलंकार
व लय के काव्य अलंकरण में।
तत्पश्चात जन्मी एक कविता
कागद के कोमल दामन में।

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शीर्षक – "नन्हीं गौरैया"

नितदिन प्रातः प्रांगण मेरे
नन्हीं गौरैया आती थी।
कभी अकेले,कभी झुंड में
आ बैठक वह में लगाती थी।
चहक-चहक मधुरता संग
प्रभात-गीत वह गाती थी।

इस भाँति बन सुरैया वह
नितदिन मझे जगाती थी।
नित प्रातः उठ सर्वप्रथम मैं
दाना उन्हें खिलाती थी।
चुग दाना चहक-चहक वह
स्नेह सुरीला मुझपे लुटाती थी।


(शेष अनुशीर्षक में पढ़ें)

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