सृष्टि स्नेही चौहान  
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Joined 28 October 2020


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शीर्षक – 'शरद-पूनम की चंद्रिका'

लिए शोभन शशांक मोहिनी शरद-निशा पधारी ,
हुए चकित चंद्र की चारुता पर सब नर-नारी।

बैठी समक्ष चंद्र के मतवाले मित्रों की टोली,
एक-एक कर शुरू हुई आनंदमयी ठिठोली।

कोई कहे चारु चंद्रिका कैसे तुम्हें मिल पाई?
इतनी शोभन संगिनी भाग्य में कैसे आई?

कहाँ बनवाई इतनी सजीली श्वेताभ चुनरी?
रूप चंद्र का आज लगे चंद्रिका की मुंदरी!

इस प्रेम-संगम पर है नभ-धरा में हर्ष अपार,
बरसी चहुँ ओर चंद्र संग लिपटी चंद्रिका धार।

उत्साह में मनुजों ने परोसी क्षीर नभ तल,
दिया आशीष चंद्रिका ने पीयूष संग पल-पल।

बन गई अमृत-क्षीर इस मिलन का प्रसाद,
'शुभ स्वास्थ व भाग्य' का दे रही वह स्वाद।

शरद-पूनम पर अमृत-तार बरसा जन-जन,
नि:संदेह बड़ा अनुपम था यह अद्भुत मिलन!

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शीर्षक – पत्र की पुकार
विधा – पत्र लेखन
(पत्र अनुशीर्षक में पढ़ें)

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हे उमा-शंभू सुत, हे गणनायक!
हो एक तुम ही प्रभु मंगलदायक।

मात-पितृ प्रेम का संदेश सुनाते,
भोग में लड्डू, मोदक तुम्हें हैं भाते।

है नहीं भव में तुम-सा कोई ज्ञाता,
हर कोई सर्वप्रथम तुम्हें ही ध्याता।

सीख, विवेक, ज्ञान का वर देते,
क्षण में जीवन से विघ्न हर लेते।

करते जो भक्त नित श्रद्धा अर्पण,
हो प्रसन्न देते उसे सुखी जीवन।

श्रद्धा संग मैं नित गुण तुम्हरे गाऊँ,
करो कृपा कि कभी दुःख ना पाऊँ।

बनो प्रभु तुम मेरे भी सहायक,
हे उमा-शंभू सुत, हे गणनायक!

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कलम प्रेम है, भावना अर्थात् सृजन,
लेखन मनुष्य संग आत्मा का मौन संवाद।
व जीवन लेखक का ज्यों साहित्य की साँसें!

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शीर्षक – "काल यंत्र (Time Machine)
(अनुशीर्षक में पढ़ें)
विधा – लेख
राष्ट्रीय कैमरा दिवस विशेष

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सा - मनुज! बनाओ "सार्थक"
तुम अपना जीवन।

रे - अमिट "रेखा मर्यादा
की" हो क्षण-क्षण।

ग - "ग़म को स्वीकार"
बढ़ाओ आगे कदम।

म - हों "मधुर" तुम्हारे
मुखबोल के कण-कण।

प - समय संग "परिवर्तन"
से निखरे जीवन।

ध - धर "धैर्य" करो हर
निर्णय से पूर्व मनन।

नि - निखारो "निरंतरता"
संग योग्यता तुम।

बनेगा तभी सुखद व
सरल मनुज जीवन!

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शीर्षक – "काग संग राम"

खेलें कागा संग मे चंचल रघुनंदन,
भागत कागा संग राघव सभी अंगन।
जै छुअत कागा के तेहिं प्रभु मुस्काई,
अरु हाथ ना आवत तै नयन नीर बहाई।
तीनों लोकन के जै हरि खेल खिलावै,
ओहको एक खग खेल संग उलझावै।

थामे रोटी पाणि में प्रभु कागा के खिंझाई,
अरु डाल रोटी मुख में मंद-मंद मुस्काई।
रोटी जै राम की कागा ने छीन लियो,
राम के नयन संग प्रपात फूटी पड़ो।
देख दृश्य सोचत काग है इहि पालनहारी,
जैको रोटी समक्ष है नहीं कोई दुख भारी।

(शेष अनुशीर्षक में पढ़ें)

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खो दिया भारत ने चलचित्र का 'भारत',
हुई विलीन भारत की अनूठी 'अमानत'।
नापी जिसने 'पूरब और पश्चिम' दिशाएँ,
दिखाई झलक कि कैसे "अपने हुए पराए।
'गुमनाम' हस्ती से बनाई अनूठी 'पहचान',
सिखाया कि करो 'उपकार' व 'बलिदान'।
बन 'सन्यासी' दिखाया 'कलयुग और रामायण',
बने प्रेम में 'पत्थर के सनम' तो कभी 'साजन'।
दिखाया 'क्रांति' और 'शहीद' सा रूप अनूठा,
सजाई 'फूलों की सेज' और 'सावन की घटा'।
रहेगा 'हिमालय की गोद में' सा ऊँचा उनका स्थान,
फैलाएंगे हमेशा प्रकाश 'पूनम की रात' सा बन 'चाँद'।
ऐसे 'बेदाग' 'आदमी' रहेंगे हमेशा 'यादगार',
ले 'सहारा' यादों का करेगा 'शोर' उनका हर किरदार।
रहेंगे हमेशा वह सभी 'देशवासी' के मन में,
हृदय से उन्हें बारंबार कोटि-कोटि नमन है!

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हाय! ये रूप तेरा मस्ताना,
देख बने हर कोई दीवाना।
क्या रंग, क्या ढंग, क्या अंग,
लगे तू कुदरत का नज़राना।
ऐ मेरी हमदम कुर्सी! है पसंद
मुझे तुझ पर आराम फरमाना।
सुन कविता के पाठक अनजाना!
समझ गलत तुम ना शर्माना।
बस कर माफ़ मुझे थोड़ा मुस्कुराना,
है जो आज अप्रैल फूल का ज़माना।

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कलम महादेवी की हो
ज्यों नभ की "निहार"।
पर चमक "रश्मि" सा
चमका साहित्य संसार।
लगी "संध्यागीत" सी
एक-एक शब्द झंकार।
बने कागद चारु "पल्लव" से
समेट अनूठे शब्द आकार।
बसे "अग्निरेखा" से पाठक की
स्मृति में एक-एक शब्द आधार।
नव लेखक हेतु कृतियाँ उनकी हैं
"हिमालय" सी ऊँची व प्रेरक विचार।
साहित्य नभ की इस अनूठी
"तारा" को करे उर नमन बारंबार!

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