बतौर हाज़िरी... एक कविता
# माघ, जेठ या पूस
'हल्कू' है मायूस।।
ग़म की है दरियादिली ,
और खुशी मनहूस ।।
पीछे बन कर चल पड़ी,
परछाईं ; जासूस ।।
तू 'मरमर' की देहरी
मैं बेचारा फूस ।।
कंजूसी अच्छी नहीं
चल, दे थोड़ी घूस।।
सबकी अपनी बानगी,
हो भारत या रूस ।।
हुई जोंक सी ज़िन्दगी,
मजबूरी है, चूस ।।
उस पल बस तेरी कमी,
की मैन महसूस ।।
#अंकुर सहाय 'अंकुर'
- अंकुर सहाय 'अंकुर'
15 OCT 2018 AT 15:16