अन्नदाता
ना जाने कितने आँसू बहे ,
नहीं बहा आसमान फिर भी |
गरजे - गिडगिडाए वे दफ्तर - दफ्तर ,
कहीं लाइनें तो कहीं ताले बंद |
किए यग्य, हुई प्रार्थना , गाए हजा़रों भजन ,
कभी तो हो बूँदों की बारिश , कर देंगे वो सारे जतन |
धरती का कलेजा भी कचोट रहा , नहीं सहा जाता अब उनको दरारों का दर्द ,
बस एक बार वर्षा हो जाए , चुका देंगें वो सारा कर्ज़ |
धरती से अन्न उपजाएँ , देखो जो हाथ छिले हुए ,
किस्मत से और क्या माँगें वो , हर कष्ट से मिले हुए |
हर घर के भोजन की सोंचें ,
जो किसान आधे पेट रहें |
उजड जाती दुनिया उनकी , कभी बाढ कभी सूखे से ,
मन में ललक इतनी बस कि हरे-भरे लहलहाते खेत रहें |
कर्ज़भरा वो जीवन उनका , मुश्किलात से परिवार पले ,
दबे हुए हैं मजबूरी से , प्राकृतिक प्रलय के बोझ तले |
कलेजा वो मोम जैसा , ना जाने कितनी बार पिघला ,
शरीर वो पत्थर जैसा ,तोडे से भी ना टूटा |
हिम्मत है उनमें , हर जुल्म जो संसार का सहे ,
ना जाने पर क्यों दुनियावाले ,
'अन्नदाता' को सिर्फ 'किसान' कहे |
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