मेरी खामोशी के पर्दे में कैद बड़ी चीखें हैं,
गैरों का तो लाज़मी था, अपनों के भी तेवर तीखे हैं।।
दुनियां के इस शोर तले,
मेरा सन्नाटा हावी था ;
वो वक़्त बड़ा जबरदस्त था,
जब खुद में, मैं, खुद ही काफ़ी था।।
ये वक़्त बदल कर जब से आया,
अपने भीतर के शोर से मैं घबराया;
रंग बदलते जब देखा लोगों को,
दुनियां का असली खेल समझ आया ।।
दुनियादारी का खेल जो अब हम भी सीखे हैं,
मेरी खामोशी के पर्दे में कैद बड़ी चीखें हैं।।
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परिंदे नहीं है अब पिंजरे की बंदिशों में,
उड़ान में पर अब वो बात नहीं,
ऊड़ेगा पूरे आसमाँ में वो लेकिन,
वो बेफ्रिकी वाले ज़ज़्बात अब नहीं।
घायल हुआ है वो उसकी उड़ान में
जो एक बार कुछ तीरों से,
अपने आशियाने जैसा समझे ले फिर से ये आसमान,
इतना वो नादान अब नहीं ।।-
घायल परिन्दा (Part-01)
लगी थी आग जंगल में, सब तहस नहस हो गया,
परिंदा तो बच गया, उसका आशियाना कहीं खो गया,
कईं तीर चले एक साथ, पर आसमां बहुत बड़ा है,
मौत थी चारों तरफ, पर जीने की भी तो तमन्ना है,
चोट खा कर बैठ गया है, गिरा नही है,
परिंदा ज़ख़्मी बहुत है, पर अभी मरा नहीं है,
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चोट खा कर बैठ गया है, गिरा नही है,
परिंदा जख़्मी बहुत है, पर अभी मरा नहीं है ।-
किसी खुशनुमा धूप के साये में सहमा सा रहता हूँ,
मैं वो आज़ाद परिंदा हूँ जो अब भी पिंजरे में रहता हूँ-
कोशिशें ज़ारी है पर ख्वाहिशें अधूरी है ।
अच्छा है,
जिंदा रहने के लिए कोई वजह भी तो ज़रूरी है।।-
हालात बदल गए,
ज़िन्दगी बदल गयी,
ये जो मुस्कराते लोग है,सब बदल गए,
कमबख्त ये तस्वीर क्यों नही बदलती,
एक अरसे के पहले की हकीकत दर्शाती है;
जब खुश था में उन पलों की याद दिलाती है;
जिनकी वजह से खुश था उनकी याद ले आती है:
आज मायूस भी उन्ही की वजह से हूँ, बस ये नही समझ पाती है;
इसमे बैठे सारे लोग बदल गए, कमबख्त ये तस्वीर क्यों नही बदल जाती है।।-
ये मौत का तमाशा भी अजीब है साहब,
जिंदगी दाव पर लगाना पड़ता है, चंद दर्शक जुटाने में-
न जाने कौन से खौफ के ताले
दबा जा रहा हूँ मैं,
जिंदा सा तो कुछ बचा भी नही,
फिर भी जिये जा रहा हूँ मैं ।।-
आज फिर ये नकाम्यबिया मुझे घेर रही हैं,
आज फिर ये दुनिया मेरे ज़ख्मो को कुरेद रही हैं ।
जानता हूं कि सब ठीक कर सकता हूँ,
पर न जाने क्यों कुछ भी करने से हिचक रहा हूँ
जानता हूं कि ये रास्ते गलत है सारे,
फिर भी न जाने क्यों इन्ही में भटक रहा हूँ ।।
आज़ाद होना चाहता हूं इन बंदिशो से,
पर कहता है मुझसे ये ज़माना ,
बंदिशो में तुम हो ही कहा ,
ये तो है बस तुम्हारे मन का बहकावा ।।
"डिप्रेसन" की बात जब कही तो लोग दूर होने लगे
ये कहकर कि ये तो मानसिक रोगी है,
कौंन समझाए इन अकल के ठेकेदारो को
तुम्हारी इसी मांसिकता का तो वो भोगी हैं।।
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