जिस हद तक किया था इश्क मैने, उस हद तक मेरा बुरा कर तू,,,
मंजूर नहीं ये आधी बर्बादी मुझे, जो करना हे तो बर्बाद पूरा कर तू,,,
मुस्कुरा रही हे मुझे ज़ख्म हजारों देकर भी,
चल कर दे अब रिहा जिंदगी से, एक ओर गुनाह कर तू,,,,,
जिस हद तक किया था इश्क मैने, उस हद तक मेरा बुरा कर तू,,,-
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ho skta he itne kaabil na ho hum, or duniya par chha nahi pay... read more
फ़िक्र थी मुस्तकबिल पहले दिन रात, अब हर लम्हा तेरा ख्याल कर बैठा हूँ...
क्यूँ हे जुबां पर अब हर घडी नाम तेरा, कई बार खुद से सवाल कर बैठा हूँ..
न नींद का वक़्त है कोई अब, न दिन में सुकून है,
न नींद का वक़्त है कोई अब, न दिन में सुकून है,
इश्क में आकर तेरे शायद, ज़िंदगी बवाल कर बैठा हूँ....
फ़िक्र थी मुस्तकबिल पहले दिन रात, अब हर लम्हा तेरा ख्याल कर बैठा हूँ...-
If we tell a friend that the person with him steals his things, then will that friend tell the person who stole that person says that...or is it correct to say that? What will the person who stole do after this? Will he do this carefully or will he isolate the person who told us... So what is this truth?... Tell those who stole it if anyone has found out.
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बदलते देखा हे अपनो को दुनियां ने, फिर भी लेते
कोई सबक नहीं,,,,
करीब रहा होकर जलील उनकी ही बातों से, पड़ा मगर उन्हें कोई फरक नहीं,,,
जो आंखे झुकी सी रहने लगे, जो जुबां पे लफ्ज़ ना मिले मेरी, तो समझ लेना हार कर चुप था *KD*
वो था कहीं भी मगर, गलत नहीं।।।-
हर लफ्ज़ सच्चा था मेरा तुझसे कहा,
मगर इरादे तेरे नापाक निकले,
किए जो वादे तूने, तेरी जरूरतों में,
वो सारे के सारे खाक निकले,,
देते हो मिसाल जिनकी जुदाई के मुझसे दूर जाने को,
उनकी वजह थी कुछ,,,,
मगर ज़ालिम यहां बेवजह ही ,
बेवफ़ा आप निकले।।।
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अभी अनजान हूं तेरे शहर से मैं, जरा पहचान बढ़ाने दे,,,,
तुझसे मिलने एक बार मुझे, तेरे शहर को आने दे,,
सुना है रोज भागती है जिंदगी कईं, कुछ कर गुजरने के वास्ते,,
पकड़ कर हाथ तेरा एक बार मुझे, वो लम्हा जी जाने दे,,,
अभी अनजान हूं तेरे शहर से मैं, जरा पहचान बढ़ाने दे,,,,-
कभी बेबाक सी अदाएं तेरी ,
कभी चांद शरमाया लगता है,,,
कभी लबों पे खिलखिलाती हसीं,
कभी फूल मुरझाया लगता है,,
और खामोशी कुछ पल की हो,
तो ठीक हे तेरे चेहरे पर,,
ज्यादा हो जाए तो पूरे शहर में मातम
और हर शक्श दफनाया लगता हे,,-
ऐ ज़िन्दगी तूने कसर न छोड़ी, ज़रा भी मुझे सताने में,,,
की अब डर सा लगने लगा है मुझे अपने ही घर जाने में..
नम हो जाया करती थी आँखे मेरी कुछ वक़्त पहले तक,
अब एक आंसू भी नहीं निकलता यहां, किसी के रुलाने में....
ऐ ज़िन्दगी तूने कसर न छोड़ी, ज़रा भी मुझे सताने में,,,
ऐ ज़िन्दगी तूने कसर न छोड़ी, ज़रा भी मुझे सताने में,,,
कुछ शख्श थे एतबार के, जिनसे बात होती थी....
बात खुशियो की हो या ग़म की, उन्ही के साथ होती थी..
ज़िंदगी छोटी हे बहुत, उस वक़्त लगता था कभी,
दिन गुजर जाया करता था चुटकियों में, चुटकियों में रात होती थी..,,
समेटा करता था जिन यादो को, बनाकर ताकत अपनी,,,
अब लगा हूँ उन्हे मैं , हर रोज मिटाने में।।
ए ज़िन्दगी तूने कसर न छोड़ी, जरा भी मुझे सताने में,,
की अब डर सा लगने लगा है मुझे, अपने ही घर जाने में।-
मसला ये नही की जुदाई मिली हमे, उसने बेवफाई की ये चुभता है,,,,,
अब न जाने किस सोच में रहते है, कि खबर नही है ,
सूरज कहा उगता है कहा डूबता है,,,,
हम समझ बैठे उस शख्स को अपना सब कुछ मगर
दे गया तालीम वो भी जाते जाते,,,,
की अपनो का घर तो जनाब अपना ही पहले लूटता है।।-
ज़िन्दगी लुटा बैठा मैं उसके ख़ातिर अपनी, मगर इतनी बड़ी बात वो हल्के में ले गयी,,,
अब समझ आया यारा वो आशिक़ जो चंगे दिखते थे कभी, आज उनके हाथों में बस सिगरेट ओर दारू क्यूँ रह गयी।।।-