प्रेम निश्चल हो कर भी क्यों लगता है असहाय
जब प्रेम में न रहता प्रकट करने का भी अधिकार
जब लग जाती है प्रेम पर किसी और के नाम की मोहर
तब हृदय पाषाण सम, मुरझा जाता है प्रेम का गुलमोहर
कर देता है मन उथल पुथल वैध अवैध का प्रश्न चिन्ह
तब केवल शेष रह जाता लगाना प्रेम पर विराम चिन्ह
दृष्टि से अगोचर, मन की देहरी पर छाप जाता है प्रेम के पद चिन्ह
जब जीवन का आधार प्रेम ही हो तब कैसे करे प्रेम को निश्चिंह
कभी 'अपार शांति' कभी 'अथाह वेदना' का भार लगता है स्मृति चिन्ह
हाय !विवश मन न खींच पाता स्मृतियों के आवागमन पर कोई यति चिन्ह-
सुनो बात क्यों नहीं करते हो आजकल
अल्प ही सही यदि ना कह पाते अनर्गल
रिश्तों की उधेड़बुन में है क्या तुम्हारे मन
क्यों नहीं तोड़ देते अपना अहं का अर्गल
यदि खुले आँखो से न कर पाते अवलोकन
मूंदकर पलकें फिर क्यों नहीं करते निरूपण
जिस दिन करना सीख जाओगे मुझे आत्मीकरण
अनुभव करोगे प्रतिक्षण चाहे हो बंद या खुले नयन-
वो खास था जो बीत गया दोनों के दरमियाँ
यादें वो मुलाकात की आज भी रह गई।
मुड़ कर जो चल दिए उसे रोक न सके
मजबूरी वो हालात की आज भी रह गई।
कोशिश तो बहुत की उसे भुलाने की
खुशबू उसके जज्बात की आज भी रह गई।
जुदा हो कर भी न जुदा हो सके
सौगात उसके साथ की आज भी रह गई।
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माना कहना नहीं आया मुझे बिछड़ते समय तुम्हे अलविदा
क्या तुम्हे हुआ था अनुभव, तुमसे दूर होने की मेरी विवशता
प्यार का पूर्व राग समझ कर तुम्हारी अवहेलना, संजोये सपने मिथ्या
बहते रह गए भ्रम में, क्या थी ये जीवन की विडंबना या मेरी मूर्खता
जब था मेरा प्यार ही असहाय तब थी एकमात्र मुक्ति की दरकार
ना समझो इसे तिरस्कार, तुम्हे दिए मैंने शुद्ध यातना निर्वासन का उपहार
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जाने क्या सोचकर तुमने मुझे जाने दिए
एक ही तो था पल्ला मेरे अवगुंठन का
बंद कर सारे दरवाजे क्यों नही छोड़ा
ज़रा सा भी अवकाश मेरे लौटने का-
सोलह की उमर हो या साठ कहाँ होता क्षीण प्यार की अभिलाषा
उम्र के पड़ाव के साथ बस बदल जाती है प्यार की परिभाषा
"लिप्सा से त्याग "का सफर तक जब जाना प्रेम की यथार्थता
न नाम न वंधन और न है चाह प्यार में कोई प्रतिबद्धता
मेरी प्रेम कहानी है एक ऐसे ही उपसंहार में प्रतिक्षारत
कि कोई खास हो जो बना ले मुझे उसकी प्रेम कविता-
क्यों शेष नहीं होता अनाहूत यादों का आनाजाना
क्यों वश में नहीं होता यादों का आवागमन रोक पाना
जाने वाले नही आते लौट कर क्यों मुश्किल होता स्वीकारना
जब पूरा न हुआ मिलन तब क्यों नहीं होता पूरा विछड़ना-
पूछना चाहता है प्राय: मेरे दिल में छुपा कौतूहल
क्या हुआ होगा बाद बिछड़ने के तुम्हारा हाल
क्या टूटा था दिल या सजी थी होठों पर एक अभिमान की मुस्कान
नही तो थे केवल ही उदासीन , एक तारे टूटने से रहता है निर्विकार जैसे आसमान
अथवा दर्द देने वाली की पीड़ा महसूस कर अगोचर मन
किसी समय उभर आया होगा आँखों में तुम्हारी एक बूंद अश्रुजल-
मेरे जराजीर्ण अस्तित्व पर आज है केवल आच्छादित सेवार
संचित सम्पत्ति के नाम इस अकिंचन जीवन में बस है स्मृतिओं की भार
जिजीविषा है मन किसी भी तरह कर रहा पार काल पारावार
और तुम वसंत की हरीतिमा एक परिपूर्ण तरुवर
सम्मुख में है तुम्हारे अनंत जीवन का विस्तार
फिर मिथ्या आस मन में बाँध कर चलना क्या दरकार
क्या संभव उत्पत्ति विनाश और विन्याश का नया संसार-