यामिनी देखती है
रूठ जाता
त्यौहार पे घर न आता
दिवाली का
शशांक-
पढ़ने से ही झूठ-सच जान लोगी क्या??
मैं भटक रहा हूँ अपनी ही तल... read more
तू रंग देखे
रूप देखे
जो दिखे
बस वो देखे
कहे उसे
औरत
आदमी
पर क्या देखे उसे
जो है
तेरी देखने की हद से उपर
जो है
पर नहीं है
औरत
आदमी-
नज़्म कोई गहरी लिख दूँ क्या?
फिर गूँगी बहरी लिख दूँ क्या?
रातों का अँधेरा मैं लिख दूँ
भरी दोपहरी लिख दूँ क्या?
भोले का उपवास मैं लिख दूँ
रोज़े की सहरी लिख दूँ क्या?
गाँव की कच्ची मेंड़ मैं लिख दूँ
सड़कें ये शहरी लिख दूँ क्या?
मजनू लैला को मैं लिख दूँ
कोर्ट कचहरी लिख दूँ क्या?
भागी-भागी धड़कन लिख दूँ
साँसे ये ठहरी लिख दूँ क्या?-
लिखने के लिए पढ़ना ज़रूरी है।
उगने के लिए गड़ना ज़रूरी है।
बेताब है बहुत फूल-सा खिलने को,
लेकिन खाद-सा सड़ना ज़रूरी है।
लड़ ले इस जहाँ में चाहे जिस-जिस से,
सुकून के लिए खुद से लड़ना ज़रूरी है।
जो चाहिए बहार सचमुच ज़िन्दगी में,
तो पहले पतझड़-सा झड़ना ज़रूरी है।-
वक़्त फ़िज़ूल तुमने कभी गँवाया ही नहीं
जीने का ढंग तुम्हें कभी आया ही नहीं।
दुनियादारी में डुबाया है हर पल ख़ुदको
इश्क़ का रंग तुम पे कभी छाया ही नहीं।
पेट से चीखे हो कभी गले से चीखे हो
दिल से तुमने कभी गाया ही नहीं।
हर साँस में माँगा है तुमने चाहा है छीना है
देने का सुख तो तुमने कभी पाया ही नहीं।
भागा है लेके दिल तुम्हें दुनिया जहाँ में
ख़ुद से तुम्हें इसने कभी मिलवाया ही नहीं।-
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में
-बहादुर शाह ज़फर-
कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो, तो हर बात सुनी जाती है
- वसीम बरेलवी-
बेदिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे
-जॉन एलिया-