अमोल पालेकर । यानी एक कॉमन मैन । एक कस्बाई लड़का । एक मध्यवर्गीय युवा । एक तिलिस्मी अभिनेता । एक अयस्की प्रतिभा । एक ...
A boy next door .
लंबा ढीला फुल स्लीव शर्ट । रास्ते को बुहारता बेलबॉटम । माथे से चिपका हुआ केश । दुबला शरीर सामान्य नैन-नक्श । दाँतों के बीच जीभ की तरह निर्वाह जैसी सिनेमाई उपस्थिति । हँसी ऐसी कि चाहो तो दाँत गिन लो । ख़ामोशी ऐसी कि राज राज ही रहे । गुस्सा ऐसा कि कभी आवाज पर हावी न हो । प्यार ऐसा कि 'छोटी-सी बात' को रोमांच के हद तक खींच ले जाए ...
यह लड़का अभिनय करता है या कोई वशीकरण वाला टोटका । 'गोलमाल' ऐसा कि यही राम यही छोटका । एक अभिनेता जो पर्दे पर जिये अपने हर किरदार को इतना ख़ास बना गया कि दोहराव संभव नहीं । पर्दे पर दूसरा रामप्रसाद, दूसरा अरुण, दूसरा सुदीप, दूसरा संजय संभव नहीं ।
समंदर से रेत, पुरानी हवेली से प्रेत, किसान से खेत सरीखे अभिनय से जुड़ाव का नाम है 'अमोल पालेकर' । बस इतना जानिए कि हमारी पीढ़ी जब भी बेहतर सिनेमाई अहसासात की आरज़ू लिए अपने फ्लैशबैक में लौटना चाहेगी तो सबसे पहले उस थियेटर का टिकट खरीदेगी जिसमें अमोल पालेकर का सिनेमा चल रहा हो ।
यादगार सिनेमा के बूते अपने दर्शकों के स्मृतिपटल पर ख़ास मक़ाम बनानेवाले अमोल पालेकर सर को जीवन के सफ़र के 77 वें पड़ाव पर अशेष शुभकामनाएं ।
© संतोष सिंह-
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
एक मेले में पहुँचा हुमकता हुआ
जी मचलता था एक एक शय पर
जैब ख़ाली थी कुछ मोल ले न सका
लौट आया लिए हसरतें सैंकड़ों
एक छोटा सा लड़का था मैं जिन दिनों
ख़ैर महरूमियों के वो दिन तो गए
आज मेला लगा है उसी शान से
आज चाहूँ तो इक इक दुकाँ मोल लूँ
आज चाहूँ तो सारा जहाँ मोल लूँ
ना-रसाई का अब जी में धड़का कहाँ
पर वो छोटा सा अल्हड़ सा लड़का कहाँ
© इब्न-ए-इंशा
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पंकज उधास के ‘घुँघरू टूट गए’ सुनते हुए दिव्य-दृष्टि आयी कि लेखक को भी लोक-लाज छोड़, कलम तोड़ लिखना चाहिए । मगर कलम ने कहा, अबे साले ! और कितना तोड़ोगे, लोक-लाज भी कोई चीज होती है ।
- प्रवीण झा-
मेरे बचपन से युवा होने तक का समय ब्रजभूमि में बीता । घर में भोजपुरी बोली जाती थी और बाहर ब्रज भाषा । उन दिनों ब्रज भाषा का यह लोकगीत बहुत चर्चा में था और पसंद किया जाता था । पत्नी की नाराज़गी की अभिव्यक्ति कैसे कड़े शब्दों में होती थी । मातृ भाषा दिवस पर सादर ...
काऊ दिन उठ गयो मेरो हाथ बलम तोय ऐसो मारूंगी...
ऐसो मारूंगी, बलम तोय ऐसो मारूंगी...
काऊ दिन उठ गयो मेरो हाथ...
चिमटा मारूं, फुकनी मारूं, बेलन मारूंगी
जो तेरी बहना बोल उठी बाकी चूनर फारूंगी...
काऊ दिन उठ गयो मेरो हाथ बलम तोर ऐसों मारूंगी...
लात मारूं, घूंसा मारूं, थप्पड़ मारूंगी,
जो तेरी अम्मा बोल उठी बाको लहंगा फारूंगी...
काऊ दिन उठ गयो मेरो हाथ...
ईंट मारूं, पत्थर मारूं, गंड़सा मारूंगी,
जो मेरा ससुरा बोल उठे बाकी मोंछ उखारूंगी...
काउ दिन उठ गयो मेरो हाथ बलम तोय ऐसो मारूंगी...
- दिनेश मिश्र-
पसलियां वर्तुलाकर हड्डियों का एक घेरा है जो आपकी रीढ़ की हड्डी से आपकी छाती तक जाती है । हमारा हृदय, दिल, फेफड़े इत्यादि इसी Rib Cage के अंदर होते हैं । इसी पिंजरे के भीतर ।
गौर से देखना अपने बुशर्ट, टीशर्ट, कुर्ता, शेरवानी इत्यादि के भीतर । थोड़ी देर के लिए गमछा वमछा भी हटा लेना । क्योंकि, बहुत संभव है कि लटकता हुआ गमछा हृदय को ढक ले ।
देखना रिब्स की कतार वाली दोनों पसलियों के बीच । ठीक वहीं एक 'जिप' दिखेगा । हाँ हाँ वही 'चेन' । यह ईश्वर प्रदत्त चेन है जिसकी दो ही गति है । ऊर्ध्वगामी और अधोगामी । अधोगति को पकड़ो ।
खोलो इस जिप को । जाओ त्वचा के भीतर । भीतर हृदय के पंचकोशी क्षेत्र में सबकुछ दिखेगा । देखकर सच-सच बताना । आग की लपटें, कुछ धुआँ वुआँ, कुछ राख वाख दिखा ?
जल तो गया ही होगा ?
घबराओ नहीं । स्कोप पूरा है । भीतर राख वाख न मिले तो तर्क की ढाल से काम चलाना । लोक हो या शास्त्र - दोनों तर्कों से अटा पड़ा है । दरअसल, आज तथ्य पर तर्क की जीत का ऐतिहासिक दिवस है । ऐतिहासिक दिवस पर शुभकामनाएं ।
छोड़िए जलाना मारना । भोग लगाइए भोग । दशहरा की बधाई । हैप्पी विजया ।
© संतोष सिंह
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यकीन के साथ तो नही कह सकता मगर मुझे इस बात का भरोसा है कि बेटी बचाओ, शिक्षा बचाओ, बाघ बचाओ, बचपन बचाओ, जंगल बचाओ, लोकतंत्र बचाओ की तरह हिंदी बचाओ वाले भी होंगे ही । आज संभवतः ये लोग प्रभात फेरी लगाने के बाद जलेबियाँ खा रहे होंगें ।
वो कहते हैं न 'झूठा तेरा गुस्सा प्यार सच्चा है सनम ।' सीसैट के विरोध में हिंदी माध्यम वाले अभ्यार्थियों ने कुछ साल पहले अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी । हाथ कुछ खास नहीं आया । ऐसे समय में भी यूपीएससी सीएसई की परीक्षा की तैयारी में हिंदी वाले लगे हुए हैं जब यूपीएससी सीएसई 2019 के हालिया परिणाम में इनकी उपस्थिति लगभग 2 प्रतिशत है । संख्या के आधार पर हिंदी माध्यम से लगभग 15 छात्र सफल हुए हैं । वहीं, 800 से ज्यादा छात्र अंग्रेजी माध्यम के सफल हुए हैं ।
'बम्बई में का बा' वाले भोजपुरी रैप की प्रसिद्धि के बाद दिल कहता है कि 'हिंदी में का बा' भी आ ही जाए ।
यह संतोषजनक है कि हिंदी अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित पुण्यलोक को विस्मृत करते हुए नए करतबों के साथ बाज़ार में अपनी हिस्सेदारी बनाए हुए है । लेकिन; किस्से, कहानियाँ, कविताएँ, संस्मरण वाले भाषाई विजयपताका से हम कब तक काम चलाएंगे ! फिर भी,
बक़ौल गीत चतुर्वेदी :
ओ मेरी भाषा ...
मेरे साथ इस तरह चलती हो तुम,
जैसे रेलगाड़ी की खिड़की से
झाँक रहे बच्चे के साथ-साथ
चलता है चाँद ।
हिंदी विवश की शुभकामनाएं ।
- संतोष सिंह-
वो कहते हैं टीचर उनकी यादों में हैं, मैं समझता हूँ टीचर उपेक्षा के कादो में हैं ।
टीचर व्हाट्सएप ट्वीटर और फेसबुक पर हैं । टीचर अखबारों, रेडियो, टीवी पर हैं । टीचर रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में हैं । टीचर दिन भर की गहमागहमी में हैं । टीचर महामानवों के शिष्ट सम्भाषण में हैं । टीचर सत्ता प्रायोजित सेमिनारों में है । टीचर सरकारी पुरस्कारों की सांत्वना में हैं । टीचर उपहारों से अटे पड़े बाजार में हैं ।
टीचर बी.एल.ओ. की भूमिका में हैं, टीचर ई.वी.एम. की निगरानी में हैं । टीचर जनगणना और पशुगणना जैसे दायित्वों के निर्वाह में हैं । टीचर मिड डे मिल वाले रसोईघर में हैं । टीचर सरकारी नियमावली की अतिशय पेचीदगियों में हैं । टीचर सुदूर किसी स्कूल के दुर्गम सफर में हैं । टीचर साईकिल कंधे पर उठाकर नदी नहर में हैं । टीचर छात्रों के बैंक एकाउंट खोलवाते हुए बैंक के कतार में हैं । टीचर लिंकन-गांधी-कलाम वाले पोस्टर इश्तेहार में हैं । टीचर माँ बाप की आशाओं में हैं । टीचर बाल-बच्चों की शिकायतों में हैं । टीचर स्थायीकरण की प्रतीक्षा में हैं । टीचर वेतन नहीं भिक्षा में है । टीचर बाहर से इतना फटा हुआ कि चर-चर है । और अंदर से इतना टूटा हुआ कि घर्र-घर्र है ।
टीचर कुल मिलाकर दो खंडों वाला समग्र भारतीय दर्शन हैं । टीचर इतना सर्वव्यापी है .....
..... कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन हैं ।
वन्दे टीचरम् । 🙏-
शौक़ बड़ी चीज है । और उससे भी बड़ी चीज है शौक़ से जुड़ा विशिष्टताबोध । इससे जुड़ी कुलीनता । हॉबी के नाम पर बागवानी, कुकिंग, फोटोग्राफी, रनिंग, डॉगी बॉगी, रीडिंग वगैरह सरोकार की व्यापकता नहीं रचते । और वो शौक़ दो कौड़ी का है जो सरोकारशून्य हो ।
शौक़ ऐसा पालिए कि आपकी हॉबी आपके सरोकार का परचम बनें । अगली बार सुबह सवेरे ऑक्सीजन लूटने के नाम पर 'अगली' दौड़ पर निकलिए तो दौड़ते हुए उस कोने तक पहुँचिए जहाँ सात साल का सिंटू भोरे भोर अपना बोरा सुलझा रहा है । जिसे अपनी पीठ पर टाँगे वो आपके तथाकथित सोसाइटी के कूड़ेदान तक का सफ़र पूरा करेगा । जीवन की तलाश में आपके कूड़ेदान की तलाशी लेगा । पूछिये खुद से आपके सातवर्षीय बिट्टू की पीठ पर 'स्काइबैग' और उस सिंटू की पीठ पर प्लास्टिक का गंदा बैग क्यूँ है । इस टू बैग्स सिस्टम से उलझिए । खुशनसीबी स्कूल और स्याहनसीबी कूड़ेदान से क्यूँ जुड़ती है, पूछिये अपने आप से । पूछिए ख़ुद से कि ज़ुल्मत से भरी यह जो समानांतर दुनिया है उसे बनाए रखने में आपकी कितनी हिस्सेदारी है !
समय मिले तो सिंटू के मोहल्ले में जाइए । उसे पढ़ाइए । सिंटू जैसे कई नए पौध को आपका इंतज़ार है ।
जीवन महाभोज है साहेब । इसमें उचित अंशदान करिये । ढाई चावल की खिचड़ी अलग पकानेवाली सुविधा से बाहर निकालिए । छोड़िये बागवानी, त्यागिए एडिडास वाला कैटवॉक, बाहर निकालिए अपने माइक्रोवेव से ..
समय निकालिए, सिंटू से जुड़िए ।-
कल एक बेरोजगार मित्र ने पूछा कि धरती के घूमने का पता उसे क्यों नहीं चलता । जी में आया कि कह दूँ - तुम बेरोजगार हो, इसलिये । लेकिन, मैंने प्रतिप्रश्न किया । पूछा कि अभी मैं सत्तर किलोमीटर से ज्यादा घूम कर आ रहा हूँ, तुम्हें पता चला ? उसने तपाक से कहा कि बात धरती की है, तुम कहाँ घुस आये ? इतिहास गवाह है कि मेगास्थनीज, फाह्यान, अलबरूनी, ह्वेनसांग, मैक्समूलर वगैरह से यह सवाल किसी ने नहीं किया । बहुत बाद में सरकार ने चकमा घुसपैठिये से पूछा - तुम कहाँ घुस आये ?
खैर, मैंने कहा कि धरती, बेरोजगार और दलाल इन तीनों के घूमने का पता बस इन्हें ही चलता है । औरों को नहीं । बेरोजगार बेरोजगार से, धरती आकाशगंगा के दूसरे ग्रहों से और दलाल दूसरे दलाल से नहीं पूछता कि वो क्यूंकर घूम रहे हैं ।
इस देश में आपदा ही एकमात्र अवसर है, पता है ? पता है कि नौकरी गंवानेवालों की संख्या इन दिनों जान गँवानेवालों से ज्यादा है ? पता है नौकरी खोजना टीका खोजने से ज्यादा जरूरी और दुश्वार है ? नहीं न ?
धरती के घूमने का पता हमें तब चलता है जब हम ट्रेन में होते हैं या फिर किसी टोरा-टोरा में । पैर के नीचे से ज़मीन का खिसकना जरूरी है धरती की घुमक्कड़ई जानने के लिए । रूमी जब रक्स करते करते रुक जाते थे तब उन्हें पता चलता था ।
दोस्त, धरती वो सवारी है जिसमें ब्रेक नहीं होता । इसे मौजूदा महामारी की आँख से देखो । पता चलेगा ।
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और अब ...
अब हम सब आईपीएल से जुड़ेंगे ।
खिलाड़ी से लेकर पनवाड़ी तक, व्रतधारी से पटवारी तक, बाबा से बुकीज तक और ... और जर्नलिस्ट से पैनलिस्ट तक सब इससे जुड़ेंगे । कुल मिलाकर हर कोई जो निगेटिव है आईपीएल से जुड़ेगा । और पॉजिटिव ? पॉजिटिव तो अपने वार्ड में अपने बेड पर अच्छे दिन की आस में करवट बदलेंगे । उधर छोर बदले जाएंगे और इधर करवट । उधर जीत के लिए एक-एक रन जरूरी होगा इधर जीवन की आस में हर साँस भारी गुजरेगा । करवट की जगह छोर, साँस की जगह रन, जिजीविषा की जगह पारी - क्या सबकुछ सचमुच बदल जाएगा ?
यही जीवन है । यहाँ खेल बदलते रहते हैं । 'विकेट' कभी 'निर्वाण' में बदल जाता है तो 'विषाणु' अगले पल 'गेंद' में । बहरहाल, खेलों के नाम बदलते रहेंगे । शब्दावलियों से लैश मंज़रनामा बदलता रहेगा । नहीं बदलेगी तो चुनौतियाँ । नहीं बदलेगा तो संघर्ष । नहीं बदलेगा तो क्रिकेट से हमारा लगाव, नहीं बदलेगा तो 'जीवन' से जुड़ा रोमांस ।
जीवन जो क्रिकेट-सा है । जीवन जो दुआओं से चलता है । साँसें जो सज़दे में छुपी है । इस खेल में मैं अपील से डरता हूँ । डीआरएस तो साँसें रोक देती है । मैं आईपीएल भर दुआएँ करूँगा । अपील करने वालों से अलग । उंगली उठाने वालों से अलग । उम्मीद करता हूँ कि इस बार आईपीएल में चीयरलीडर्स नहीं होंगे ।
मैदान जो भी हो, गिरता हुआ विकेट शायद इस बार अलग समां बाँधेगा । थोड़ी संज़ीदगी रचेगा ।-