वज़्न:: 212 212 212 212
फ़ैसले दिल-फज़ा ना किया कीजिए।
ज़ेहन से भी कभी मशवरा कीजिए।
ज़िन्दगी मौत तक साथ हँसती चले,
बस ख़ुदा से यही इक दुआ कीजिए।
जी रहा आदमी, मारकर आदमी,
ज़िन्दगी इस तरह ना जिया कीजिए।
आपका भी यहीं घर बसा है हुआ,
फूँककर घर कोई ना मज़ा कीजिए।
जोड़ते मत करो ज़िन्दगी का सफ़र,
साथ जाये, वही बस जमा कीजिए।
भूल से जो हुई, भूल वो माफ़ है,
जानकर तो भला ना ख़ता कीजिए।
चाहिए इक सुकूँ ज़िन्दगी में अगर,
दुश्मनों के लिए भी दुआ कीजिए।
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विद्यालय गीत
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मापनी :: 2122 2122 2122 2122
इक हमारी जो बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।
शांति कन्या के विद्यालय, से हमें है मान मिलता।।
जानते हैं हम हमारी, हर जगह होगी प्रतिष्ठा।
ज्ञान की इस भूमि पर हमने रखी इतनी सुनिष्ठा।
देश का हो नाम हमसे, ओज अंतर्ज्ञान मिलता।
इक हमारी जो बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।
हर विषय में श्रेष्ठ शिक्षा, से बनाता तेज हमको।
यह विद्यालय कर्म सेवा, का कराता बोध हमको।
द्वेष होता दूर हमसे, प्रेम इश्वर ध्यान मिलता।
इक हमारी जो बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।
चित समर्पण योग चिंतन, से तराशा है मेरा मन।
है नमन पावन धरा को, ज्ञान पुष्पों के जहाँ कण।
सूर्य बन बाँटें उजाला, भानु अमृत पान मिलता।
इक हमारी जो बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।
शांति कन्या के विद्यालय, से हमें है मान मिलता।
इक हमारी जो बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।
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122--122--122--122
कटी रात कैसी बतानी पड़ेगी।
पड़ी सिलवटें भी गिनानी पड़ेगी।
मुहब्बत अगर है बता दो नहीं तो,
भरी महफ़िलों में जतानी पड़ेगी।
नहीं इश्क़ रखना अगर इस जनम तो,
मुझे जान अपनी गँवानी पड़ेगी।
ग़मों की लहर है बता मयकदों को,
सुबह तक मुझे तो पिलानी पड़ेगी।
ग़ज़ल ही कहेगा मरीज़े मुहब्बत,
मुझे भी यही लत लगानी पड़ेगी।
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1222 1222 1222 1222 ग़ज़ल
परछाईं
यहाँ पर कौन तेरे साथ है, जीवन बिताने में
वही बस एक परछाईं, खड़ी है साथ जाने में
इशारे धूप जब देती, दिखाती रूप परछाईं
बिना ये रोशनी के, हिचकिचाती साथ आने में
वफ़ा को था पुकारा, और परछाईं चली आई
इसे कहते वफ़ादारी, अभी तक है ज़माने में
नहीं ये रूप का, या रंग का, सा भेद रखती है
अमीरों को, ग़रीबों को, बशर जैसा दिखाने में
समय के साथ ये बदले, घड़ी का काम करती है
किसी का आज ये देखे, किसी का कल बताने में
अँधेरों में पड़े इंसान का, ना साथ कोई दे
यही दे सीख परछाईं, उजाले रख ज़माने में
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ग़ज़ल
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मैं हक़ीक़त मिरी छिपाता हूँ।
अक्स अपना अलग दिखाता हूँ
ज़िंदगी नाप कर मिली है, फ़िर,
बेवजह क्यूँ गणित लगाता हूँ।
मैं जमा जोड़ क्यूँ करूँ इतना,
रोज़ जब एक दिन घटाता हूँ।
अश्क मेरे छिपे रहें अंदर,
इसलिए ख़ूब मुस्कुराता हूँ।
आसमाँ तक पहुँचता तो हूँ,
ख़ुद को कितना मगर गिराता हूँ।
मान ईमान ताक पे रखकर,
ज़िंदगी किस तरह चलाता हूँ।
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दोहे
अपने मन की बात को, सुनो लगाकर ध्यान।
जो मन बोले मान लो, बसते मन भगवान।।
देह दंत सब ठीक हों, जीवन ऐसा ढाल।
भोग राम को लग सके, खा वो भोजन थाल।।
वश में करके इन्द्रियाँ, ख़ुद पे कर लो राज।
दास किसी के ना रहो, प्रण तुम कर लो आज।।
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विकारों की चढ़ी परतें, हटाकर देख पाऊँ।
मुक़द्दर मैं, लकीरों को मिटाकर देख पाऊँ।
दिला दो एक, आईना मुझे, जो हो अजूबा,
मैं सूरत और सीरत को, मिलाकर देख पाऊँ।
बता मुझको, जहाँ व्यक्तित्व चद्दर का बना हो,
किसी इंसान की फ़ितरत, उठाकर देख पाऊँ।
रहेगा क्या हमेशा साथ, ये जीवन किसी का,
मिले हिम्मत कि मैं माँ को भुलाकर देख पाऊँ।
बचा लो देश कोई, मज़हबों में जल रहा है,
वतन को, आग के शोले बुझाकर देख पाऊँ।
बना गहरा मुझे इतना, कि पा लूँ वो बुलंदी,
कहाँ रहता ख़ुदा, ख़ुद में समाकर देख पाऊँ।
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ग़ज़ल
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बहर:: 2122 2122 2122
दूर रहकर भी तुम्हारे पास हैं हम
मान लो अब तो तुम्हारी आस हैं हम
क्यूँ तरसते हो बुझा लो आग दिल की
इल्म है हमको तुम्हारी प्यास हैं हम
मौत भी हम जिंदगी भी हम तुम्हारी
भूल मत जाना तुम्हारी साँस हैं हम
ये ज़माना जो समझता घास हमको
बोलना उनको गले की फाँस हैं हम
इश्क़ के सारे धुरंधर जानते हैं
क्यूँ हमेशा आशिक़ी के खास हैं हम
जब तलक तुम लौट कर आते नहीं हो
तब तलक बस आँसुओं के दास हैं हम
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फुहार
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भीषण गर्मी से चैन मिला, सुहानी जब फुहार चली।
मिट्टी की सौंधी महक लिये, बनकर मस्त बयार चली।
माँगे मग़र किसान ख़ुदा से, इक बस ख़्वाहिश पूरी हो।
कच्चे मकाँ पर फुहार चले, खेतों बारिश पूरी हो।
कहीं-कहीं गर्जन बादल के, देते खुशियाँ अपार हैं।
और कहीं कुछ-कुछ नगरों में, देते घोर चीत्कार हैं।
खेल यहाँ कुदरत का देखो, जहाँ सूखा फुहार चली।
बाढ़ , तूफ़ान , तबाही जहाँ, वहाँ मूसलाधार चली।
हाथ जोड़ माँगू मैं रब से, बारिश बस उतनी बरसे।
लागे तन फुहार सी मीठी, ना ज़मी प्यास में तरसे।-
1222 1222 1222
उड़ा लो ख़िल्लियाँ तुम भी मुहब्बत की
हमें आदत अभी तक है ज़लालत की
बड़े ईमान से हम ज़िन्दगी जीते
मिली ना ग़र सज़ा होती शराफ़त की
हँसी के बीच में घुलती दिखी नफ़रत
नहीं आती समझ दुनिया मिलावट की
छुपाकर सच समझ ना ख़ुद को अव्वल तू
उधड़ सकती तिरी चद्दर हक़ीक़त की
बशर कोई किसी मज़हब का हो चाहे
सभी को है ज़रूरत अब नसीहत की
फले मन्दिर चले मस्जिद इबादत से
कहाँ इसमें जरूरत है सियासत की
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