संजीव सिंह   (संजीव सिंह ✍️)
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Joined 22 September 2019


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16 SEP 2022 AT 0:57

वज़्न:: 212 212 212 212

फ़ैसले दिल-फज़ा ना किया कीजिए।
ज़ेहन से भी कभी मशवरा कीजिए।

ज़िन्दगी मौत तक साथ हँसती चले,
बस ख़ुदा से यही इक दुआ कीजिए।

जी रहा आदमी, मारकर आदमी,
ज़िन्दगी इस तरह ना जिया कीजिए।

आपका भी यहीं घर बसा है हुआ,
फूँककर घर कोई ना मज़ा कीजिए।

जोड़ते मत करो ज़िन्दगी का सफ़र, 
साथ जाये, वही बस जमा कीजिए।

भूल से जो हुई, भूल वो माफ़ है, 
जानकर तो भला ना ख़ता कीजिए।

चाहिए इक सुकूँ ज़िन्दगी में अगर,
दुश्मनों के लिए भी दुआ कीजिए।


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8 SEP 2022 AT 11:57

विद्यालय गीत
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मापनी :: 2122    2122    2122    2122

इक  हमारी  जो  बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।
शांति कन्या के विद्यालय, से हमें है मान मिलता।।

जानते  हैं  हम  हमारी, हर  जगह  होगी  प्रतिष्ठा।
ज्ञान  की  इस भूमि पर हमने रखी इतनी सुनिष्ठा।
देश  का  हो  नाम हमसे, ओज अंतर्ज्ञान मिलता।
इक  हमारी  जो  बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।

हर  विषय  में श्रेष्ठ शिक्षा, से बनाता तेज हमको।
यह विद्यालय कर्म सेवा, का कराता बोध हमको।
द्वेष  होता  दूर  हमसे, प्रेम  इश्वर  ध्यान मिलता।
इक  हमारी  जो  बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।

चित  समर्पण  योग चिंतन, से तराशा है मेरा मन।
है नमन पावन धरा को, ज्ञान पुष्पों के जहाँ कण।
सूर्य  बन  बाँटें उजाला, भानु अमृत पान मिलता।
इक  हमारी  जो  बने  पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।

शांति कन्या के विद्यालय, से हमें है मान मिलता।
इक  हमारी  जो  बने पहचान ऐसा ज्ञान मिलता।।

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7 SEP 2022 AT 8:02

122--122--122--122

कटी रात कैसी बतानी पड़ेगी।
पड़ी सिलवटें भी गिनानी पड़ेगी।

मुहब्बत अगर है बता दो नहीं तो,
भरी महफ़िलों में जतानी पड़ेगी।

नहीं इश्क़ रखना अगर इस जनम तो,
मुझे जान अपनी गँवानी पड़ेगी।

ग़मों की लहर है बता मयकदों को,
सुबह तक मुझे तो पिलानी पड़ेगी।

ग़ज़ल ही कहेगा मरीज़े मुहब्बत,
मुझे भी यही लत लगानी पड़ेगी।

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1 SEP 2022 AT 15:11

1222 1222 1222 1222 ग़ज़ल
परछाईं
यहाँ   पर  कौन  तेरे  साथ  है,  जीवन  बिताने में
वही  बस  एक  परछाईं,  खड़ी  है  साथ  जाने में

इशारे   धूप   जब   देती,  दिखाती  रूप  परछाईं
बिना  ये  रोशनी   के, हिचकिचाती  साथ आने में

वफ़ा  को  था  पुकारा,  और  परछाईं  चली आई
इसे   कहते   वफ़ादारी, अभी  तक  है  ज़माने में

नहीं  ये  रूप  का, या  रंग  का, सा भेद रखती है
अमीरों  को,  ग़रीबों  को, बशर  जैसा  दिखाने में

समय  के  साथ ये बदले, घड़ी का काम करती है
किसी का आज ये देखे, किसी का कल बताने में

अँधेरों   में   पड़े   इंसान  का,  ना  साथ  कोई दे
यही   दे  सीख  परछाईं,  उजाले  रख  ज़माने में


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28 AUG 2022 AT 22:56

ग़ज़ल
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मैं हक़ीक़त मिरी छिपाता हूँ।
अक्स अपना अलग दिखाता हूँ

ज़िंदगी नाप कर मिली है, फ़िर,
बेवजह क्यूँ गणित लगाता हूँ।

मैं जमा जोड़ क्यूँ करूँ इतना,
रोज़ जब एक दिन घटाता हूँ।

अश्क मेरे छिपे रहें अंदर,
इसलिए ख़ूब मुस्कुराता हूँ।

आसमाँ तक पहुँचता तो हूँ,
ख़ुद को कितना मगर गिराता हूँ।

मान ईमान ताक पे रखकर,
ज़िंदगी किस तरह चलाता हूँ।

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28 AUG 2022 AT 22:52

दोहे

अपने मन की बात को, सुनो लगाकर ध्यान।
जो मन बोले मान लो, बसते मन भगवान।।

देह दंत सब ठीक हों, जीवन ऐसा ढाल।
भोग राम को लग सके, खा वो भोजन थाल।।

वश में करके इन्द्रियाँ, ख़ुद पे कर लो राज।
दास किसी के ना रहो, प्रण तुम कर लो आज।।

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19 AUG 2022 AT 19:52

विकारों  की  चढ़ी  परतें, हटाकर  देख  पाऊँ।
मुक़द्दर  मैं, लकीरों  को  मिटाकर  देख  पाऊँ।

दिला  दो  एक, आईना  मुझे, जो  हो अजूबा,
मैं  सूरत और सीरत को, मिलाकर देख पाऊँ।

बता मुझको, जहाँ व्यक्तित्व चद्दर का बना हो,
किसी  इंसान की फ़ितरत, उठाकर देख पाऊँ।

रहेगा  क्या  हमेशा साथ, ये जीवन किसी का,
मिले हिम्मत कि मैं माँ को भुलाकर देख पाऊँ।

बचा  लो  देश  कोई, मज़हबों  में जल रहा है,
वतन को, आग  के  शोले बुझाकर देख पाऊँ।

बना  गहरा  मुझे  इतना, कि पा लूँ वो बुलंदी,
कहाँ  रहता ख़ुदा, ख़ुद में समाकर देख पाऊँ।

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20 JUL 2022 AT 22:36

ग़ज़ल
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बहर::   2122     2122     2122

दूर   रहकर  भी   तुम्हारे  पास  हैं  हम
मान  लो  अब  तो तुम्हारी आस हैं हम

क्यूँ  तरसते हो बुझा लो आग दिल की
इल्म  है  हमको  तुम्हारी  प्यास  हैं हम

मौत  भी  हम  जिंदगी  भी हम तुम्हारी
भूल  मत  जाना  तुम्हारी  साँस  हैं हम

ये  ज़माना  जो  समझता  घास हमको
बोलना  उनको  गले  की  फाँस हैं हम

इश्क़    के   सारे   धुरंधर   जानते   हैं
क्यूँ  हमेशा  आशिक़ी  के खास हैं हम

जब  तलक तुम लौट कर आते नहीं हो
तब तलक बस आँसुओं के दास हैं हम


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12 JUL 2022 AT 19:31

फुहार
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भीषण  गर्मी  से  चैन  मिला, सुहानी  जब फुहार चली।
मिट्टी  की  सौंधी महक लिये, बनकर मस्त बयार चली।

माँगे मग़र किसान ख़ुदा से, इक बस ख़्वाहिश पूरी हो।
कच्चे  मकाँ  पर  फुहार  चले,  खेतों  बारिश  पूरी  हो।

कहीं-कहीं  गर्जन  बादल  के, देते  खुशियाँ  अपार  हैं।
और  कहीं  कुछ-कुछ  नगरों  में, देते  घोर  चीत्कार हैं।

खेल  यहाँ  कुदरत  का  देखो, जहाँ सूखा फुहार चली।
बाढ़ ,  तूफ़ान ,  तबाही  जहाँ,  वहाँ  मूसलाधार  चली।

हाथ  जोड़  माँगू  मैं  रब  से, बारिश  बस उतनी बरसे।
लागे  तन  फुहार  सी  मीठी, ना  ज़मी  प्यास में तरसे।

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14 JUN 2022 AT 19:53

1222   1222   1222

उड़ा  लो  ख़िल्लियाँ  तुम  भी  मुहब्बत की
हमें   आदत  अभी   तक  है  ज़लालत  की

बड़े    ईमान    से    हम    ज़िन्दगी    जीते
मिली   ना  ग़र   सज़ा  होती  शराफ़त  की

हँसी   के   बीच  में  घुलती  दिखी  नफ़रत
नहीं   आती  समझ  दुनिया  मिलावट  की

छुपाकर सच समझ ना ख़ुद को अव्वल तू
उधड़   सकती   तिरी  चद्दर  हक़ीक़त  की

बशर  कोई   किसी  मज़हब  का  हो  चाहे
सभी  को  है  ज़रूरत  अब   नसीहत  की

फले   मन्दिर   चले   मस्जिद   इबादत  से
कहाँ   इसमें   जरूरत   है   सियासत  की

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