सुनो!
जो लफ्ज़ मेरे लबों पें आकर ठहरे हैं,
उन्हें अपने लफ्ज़ो में कहो ना तुम।
ये रस्मों रिवाज की दुनिया मतलबी हैं बङी
इनसब से परे कहीं मिलो ना तुम।
मेरी सुबहे हैं बङी बेचैन सी,
सुकून भरी शाम बनो ना तुम।
कांटे तो जमाने बन बैठे हैं,
इन खुशबू के फूल बनो ना तुम।
चुभने लगी हैं अब ये खामोशिया तुम्हारी,
अच्छा चलो लङ लो,मगर कुछ कहो ना तुम।
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