तन्हा जो चल रहे थे,
अरमान ढल रहे थे।
निकलने को उत्सुक,
जब प्राण झल रहे थे।
छला गैरों की तरह,
उसने मन को भी तभी।
थे गिनती के अंतिम,
वो स्वांस चल रहे थे।

- सनातनी_जितेंद्र मन