सनातनी_जितेंद्र मन   (सनातनी_जितेंद्र मन)
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Joined 6 April 2021


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Joined 6 April 2021

सपनों की किसी किताब की तरह...
पन्ने शेष हैं पढ़ने के लिये...
सन्दर्भ हरेक खास हैं हमारे लिये।।
व्याख्यात्मकता से दूर, प्रश्नों के धूर भरे..
प्रेम! असीम अड़चनों से परे....

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ये शोखियां हुस्न की,और ये दिलकश नज़ारे।
मिलो तो बतायें, ये क्या ना बिगारें।।
देखें झरोंखे, ये नैन हमारे...
किसकी विरासत, हैं ये चांद-तारें,
पल-दिन गुजारे, हों ख्वाबों में सारे।
मिलो तो बतायें, मन! ये क्या ना बिगारें....

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मन! भाव नहीं वो पढ़ पाये, शब्दों के कसीदे पढे़ गये।
लैला-मजनूं कि रीत गढी, रांझा-हीर जस बड़ी-चढ़ी।
पूरब देखा पच्छिम देखा, देखा उत्तर-दक्षिण देखा।
मिला ना संगीत कोई, कोना-कोना ढूंढा देखा।
शिव-पार्वती नहीं गा पाये,इक प्रेम-जुदाई बरे गये।
कुछ रंञ्ज-रंञ्ज में बहे गये, सबके-सब शायर कहे गये...

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यूँ तो सफर-ए-जिंदगी, सुहाना बहुत है....
दिलों में एक-दूजे के, आना-जाना बहुत है।
आसां! नहीं इक पल में ही,कर-गुजर जाना कुछ भी..
ख्वाब बहुत हैं, अभी पाना बहुत है।।

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वक्त! ने भी, क्या खूब आजमाया......
वो कभी दिया ही नहीं जो भाया।
दिये दिलाशे, कदम-दर-कदम,..
किये वादा-खिलाफी, मन बहकाया।
ठेंगा चाहतों का, दिखाकर नचाया,..
बे-वक्त! रहा, वक्त- वक्त पे न आया.....वक्त ने भी...

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मनमोहक मुस्कान सजाये, सुंदरता कि खान लजाये।
चंचल चितवन जान ले जाये, सपनों के कई रंग दिखाये।।
देखत तेरी सूरत भोली, ठहर जरा अरी मन की चेली।
ऐसा जाल बिछाये,प्यारी.... प्रीतम देख लुभाये।।

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सजा़याफ़्ता रही, मुहब्बत उसकी.....
बावस्तगी! कहीं न कहीं, दूर तक कि है "मन"।।

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भूला नहीं कुछ भी.....
ख़ामोशी दिख रही, अलग बात है।
अभी टूटा नहीं, जिस कदर टूटते...
लफ्ज़ बिखरे हुए हैं, अलग बात है।।
नमीं! बाकी बहुत है, दिल में अभी...
सुर्ख लहजों में छायी, अलग बात है।।
तकल्लुफ! जिंदगीभर, यूं ही चलती-चलेगी...
सरगर्मियां! मुरझायी, अलग बात है।।

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उसकी नजरों! ने, बेबस किया था हमें...."मन"
वरना..हैसियत! इतनी कहाँ हममें, जो एतराफ़ करते।।

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कोशिशें! लाख कि,इस जमाने ने गिराने कि हमें....
मेरे सांवरे..मगर...तेरी नेमत ने मुझे, गिरने न दिया।
तोड़ हरबार शिकंजे जगजाल,से भय के सभी....
बहरवार! तेरी रहमत ने, मुझे सहारा दिया।।

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