सनातनी_जितेंद्र मन   (सनातनी_जितेंद्र मन)
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Joined 6 April 2021


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....उतना रहा नहीं...
मैं कभी जितना होता था।।

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बीता समय आये न आये....
किन्तु सुधार के अवसर जीवन में अनेकों बार आते हैं।

तात्पर्य👉बीते समय और उनसे उपजे अच्छे-बुरे कर्मों का शोक-मलाल छोड़कर आने वाले अवसरों का सदुपयोग नवसृजन के लिए करना ही वास्तविक पुरुषार्थ है....

आइये इस दीपपर्व पर हम सभी एक-दूसरे के प्रति संकल्पबद्ध हो नवपल्लवित तरु कि भांति शांति - सुख - समृद्धि एवं आरोग्यता कि कामना से दीपदान करें।।

💐शुभ दीपावली की शुभकामनाएं💐

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ये कुशमित अदायें, ये तिरछी निगाहें...
ले मौसम कि मस्ती, किधर जा रही हो।
ओ खिलखिलाती सहर!, क्यों?...कहर ढा रही हो..

सुन! यौवन कि इंदु, ये तेरे चञ्चल इशारे.....
कह मन! मुराद, किस नफीस को पुकारे।
है रुत कौन? सा,...जो बही जा रही हो...
ओ खिलखिलाती सहर!, क्यों?...कहर ढा रही हो..

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अकेला! नहीं, तू इस जहां में,
मारे! और भी हैं....
कुछ यार कि रुश्वाई के...,
कुछ प्रेयसी कि जुदाई के।
हैं प्रीत! कि बेवफाई के...,
तो कुछ जिंदगी कि तन्हाई के,
बेचारे और भी हैं.....मारे और भी हैं....अकेला नहीं तू

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दिखावे कि बस्ती है, न पूंछो यहां किसकी हस्ती है।
है जिंदगी महंगी, यहां...मौत सस्ती है.....
कुछ पलों कि मस्ती है, क्यूँ इतनी जबरदस्ती है।।

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मतलबी लोगों के हैं, ये तलबी रिश्ते सारे..
दरकार! दारोमदार कि, यहां हर-एक को है।।

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रिश्ते रूह से हों, तो सबर आ ही जाता है....
यहाँ मतलबी! यारों का, कोई घर नहीं होता।।

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धोखे कि जिंदगी है,
जिंदगी ही धोखा है।
हो आदी! जो धोखों के,
खाओ किसने रोका है।।

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उम्मीदें! बेहिसाब जिंदगी से, ही सुरमयी हाला है।
परिणाम! निराशाओं भरा, गरल का प्याला है।।

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सच्ची! कहो, ये कहाँ सीखी,
ये मादकता! भरीं, नजरें तीखीं....
ये सुघर-अधर, मिलाये रस-वीचि।
ये गगन सा अगन,
महकाये तन-मन।
ये मुस्कुराहटें मधुर,
बतियन मीठीं।।
सच्ची! कहो, ये कहाँ सीखी.....ये मादकता....

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